Saturday, 21 February 2015

तुरतुरिया माता सीता का आश्रय स्थल 

 blogger - DKSHARMA 113,sundarnagar Raipur

 सर्वप्रथम  इस जगह  पर मै  अपने  मित्र श्री नारद चौधरी जी के साथ उनके बुलेट से सिरपुर और बार नयापारा  टूर के दौरान पंहुचा हु। उस समय मुझे याद है की महासमुंद  से सिरपुर  होते हुए कसडोल जाते समय पुल - पुलिए  तेज वर्षा की वजह से बाढ़  आ गए थे।और  हम दोनों को सिरपुर  के पुराने विश्रामगृह  में  रात व्यतीत  करना पड़ा  था। और सुबेरे मौसम खुलने पर जैसे तैसे  तुरतुरिआ  देखते हुए कसडोल पहुंचे थे। वैसे वे  20 ,25  km  दूर के  ही रहने वाले है ,किन्तु इस स्थल में  पहली बार मेरे साथ ही पहुंचे थे। बाद में  मुझे इस स्थल में अनेको बार जाने का मौका मिला है।  आज छत्तीसगढ़ का नाम  पुरातात्विक सम्पदा  से भरपूर  सिरपुर आदि के कारण  भारत  में ही नही बल्कि  विश्व मे भी अपनी एक अलग   स्थान  बनाता  जा  रहा  है।
  वैसे  तुरतुरिया रायपुर जिलासे 84 किमी एवं बलौदाबाजार जिला से 29 किमी दूर कसडोल तहसील से १२ किमी दूर प०ह्०न्० ४ बोरसी से ५किमी दूर और् सिरपुर से आने पर   23 किमी की दूरी पर   घोर वन प्रदेश के अंतर्गत  स्थित है। तब तो  मार्ग   जंगल वाले थे।  अब  पक्के मार्ग बन चुके है।

  यह   स्थान आसपास के छेत्र  में   सुरसुरी गंगा के नाम से भी प्रसिद्ध है । यह स्थल प्राकृतिक दृश्यो से भरा हुआ एक मनोरम स्थान है जो कि  चारो और से जंगल पहाडियो से घिरा हुआ है। इसके समीप ही छत्तीसगढ़  का प्रसिद्ध अभ्यारण बारनवापारा   भी स्थित है। यहा  पर  अनेको  प्रकार के  वन प्राणी  ,फ़्लोरा व् फौना मिलते है।

  तुरतुरिया बहरिया नामक गांव के समीप बलभद्री नाले पर स्थित है। एक बार  जब हम लोग जीप से सुबेरे के  समय यह पहुंचे थे ,तो नाले के आसपास  गौर ,हिरण ,भालू आदि  वन प्राणी  देखने को मिले थे।मैंने एक विशालकाय मादा भालू को अपने दो बच्चो को पीठ में चढ़ा कर रास्ता पर करते भी देखा है। और वापिसी के दौरान एक नीलगाय ने सड़क के किनारे लगे पत्थर के दीवारो को छलांग लगा कर हमारे सामने ही दौड़ते देखा है। वो हमारे मोटर साइकिल से टकराते टकराते बचा था।   किवदंती  है कि त्रेतायुग मे महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यही पर था और यही जगह  लवकुश की भी जन्मस्थली थी।

  इस स्थल का नाम तुरतुरिया होने का कारण  शायद यह है कि बलभद्री नाले का जलप्रवाह चट्टानो के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमे से उठने वाले बुलबुलो के कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है।

 इसका इक जलप्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड मे गिरता है जिसका निर्माण प्राचीन ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड मे यह जल गिरता है वहां पर एक गोमुख बना दिया गया है जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के दोनो ओर दो प्राचीन पाषाण   प्रतिमाए किसी वीर की स्मृती  में स्थापित है जिसमे  कि इक  हाथ में तलवार लेकर  सिंह  को   मारते हुए हुए खड़ा है  ,और दूसरी मूर्ति जानवर से लड़ाई करता हुआ  उसकी गर्दन को मरोढ़ता  हुआ  है। यही पर  विष्णु जी की भी दो प्राचीन  मूर्तीया  है।   जिनमे से एक प्रतिमा खडी हुई स्थिति मे है तथा दूसरी प्रतिमा मे विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है।  इस स्थान पर शिवलिंग भी खुदाई  आदि में भी  मिलते रहते  है..  इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तंभ भी काफी मात्रा मे बिखरे दिखते  है जिनमे कलात्मक खुदाई किया गया है। जिससे लगता है की यह स्थल पूर्व में विकसित रहा होगा।  इसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन  शिलालेख और  कुछ प्राचीन बुध्द की प्रतिमाए भी यहां स्थापित है।  यह  स्थल  बौध्द, वैष्णव तथा शैव धर्म से संबंधित  संप्रदायो की कभी  मिलीजुली संस्कृति रही होगी ऐसा प्रतीत होता है । समीप  ही नारायणपुर , शिवरीनारायण वैष्णव व्  शैव  धर्म के  धार्मिक स्थल  व् सिरपुर  बौध्द संस्कृति का भी  केन्द्र रहा होगा। आध्यात्मिक व्  पुरातात्विक  ये  स्थल इस बात को बल भी देती है।  ऎसा माना जाता है कि यहां कभी महिला  बौध्द विहार भी  थे जिनमे बौध्द भिक्षुणियो का निवास था। समीप ही  सिरपुर के  होने के कारण यह माना जा सकता है की  कि यह स्थल कभी बौध्द संस्कृति का भी  केन्द्र रहा होगा। विशेषज्ञों ने  ऎसा अनुमान लगाया गया है कि यहां से प्राप्त प्रतिमाओ का समय 8-9 वी शताब्दी है। आज भी यहां स्त्री पुजारिनो की नियुक्ति होती है जो कि एक प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा है।  यहां पूष माह मे तीन दिवसीय मेला लगता है जिसमे  बडी संख्या मे आसपास के ग्रामवासी आते है। धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटको को अपनी ओर खींचता रहता  है। पिकनिक  मनाने भी लोग आते रहते  है।
माता सीता का आश्रय स्थल

 इस जगह  के विषय में कहा जाता है कि लंका विजय से वापस आने के बाद   श्रीराम द्वारा  माता सीता  को त्याग दिये जाने पर माता सीता  को   इसी स्थान पर वाल्मीकि  मुनि जी ने अपने आश्रम में  उन्हें आश्रय दिया  था। और उनके पुत्र  लव-कुश का भी जन्म यहीं पर हुआ   माना  जाता है ।  महर्षि वाल्मीकि को रामायण के रचियता भी माना जाता है. और इस लिए  यहहिन्दुओं की अपार श्रृद्धा व भावनाओं का केन्द्र भी माना जा सकता  है



पुरातात्विक महत्त्व
सन 1914 ई. में सर्वप्रथम  तत्कालीन अंग्रेज़ कमिश्नर एच.एम. लारी ने इस स्थल के इतिहास  को समझ  यहाँ पर पुरातात्विक खुदाई करवाई, जिसमें अनेक मंदिर और सदियों पुरानी मूर्तियाँ प्राप्त हुयी थीं। यहाँ वर्तमान में  पर कई मंदिर बनते जा रहे  है। नज़दीक ही  एक धर्मशाला भी  बना हुआ है।
मातागढ़' नामक मंदिर
यहँ पर 'मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है, जहाँ पर महाकाली विराजमान हैं। नदी के दूसरी तरफ़ एक ऊँची पहाडी है। इस मंदिर पर जाने के लिए पगडण्डी के साथ सीड़ियाँ भी बनी हुयी हैं।मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है जहाँ पर महाकाली जी  स्थापित  हैं। मातागढ़ में कभी बलि प्रथा होने के कारण बंदरों की बलि चढ़ाई जाती थी, लेकिन अब पिछले कई सालों यह बलि प्रथा बंद कर दी गई है। अब केवल सात्विक प्रसाद ही चढ़ाया जाता है। लोक  मान्यता है कि मातागढ़ में एक स्थान पर वाल्मीकि आश्रम तथा आश्रम जाने के मार्ग में ही  जानकी कुटिया है,जहा ही  सीता जी रहती थी।
मैंने पाया की वर्तमान में यह पर मंदिर के आलावा अन्य सामान्य सुविधा  खाने -पीने की वस्तुये   मेला के समय को छोड़कर अनुप्लब्धत  ही रहता है। अतः आप आते है तो पूरी व्यस्था के साथ ही आवे। किन्तु यहाँ  पर आवै  तो गंदगी न फैलावे यह ध्यान में रखे  ।
 (चित्र  गूगल से साभार  व् अन्य ब्लॉगर के सहयोग से  )


  कैलाश गुफा जशपुर जिला की यात्रा 

    Devendra Kumar Sharma
113 ,sundarnagar ,Raipur ,chattisgadh
मै वर्ष २०१३ में गर्मी के मौसम  में रायपुर से  शासकीय कार्यवश अम्बिकापुर नगर गया था।  मुझे घूमने का शौक है ,मैंने वहा  पर  लोगो से आसपास के घूमने की जगह की जानकारी ली। लोगो ने मैनपाट ,सामरीपाट  कैलाशगुफा आदि जगह की जानकारी दी।श्री नेताम जी मेरे मित्र है , जो की वर्तमान में पंचायत ट्रेनिंग सेंटर में फेकल्टी मेंबर के रूप में कार्यरत है ने मुझे अपने साथ अगले दिन  कैलाश गुफा देखने  चलने को  आग्रह किया। जगह की खासियत पूछने पर इस जगह के बारे में उन्होंने बताया कि   अम्बिकापुर नगर से पूर्व दिशा में 60 किमी. पर स्थित सामरबार नामक स्थान है,



 जहां पर प्राकृतिक वन सुषमा के बीच कैलाश गुफा स्थित है। इसे परम पूज्य संत रामेश्वर गहिरा गुरू जी जिनका उस छेत्र में काफी सम्मान था,  नें पहाडी चटटानो को तराश कर निर्मित करवाया है। यहाँ  महाशिवरात्रि पर विशाल मेंला लगता है। इसके दर्शनीय स्थल गुफा निर्मित शिव पार्वती मंदिरबाघ माडाबधद्र्त बीरयज्ञ मंड्पजल प्रपातगुरूकुल संस्कृत विद्यालयगहिरा गुरू आश्रम है।
 इस जगह का विवरण जानने  के लिए लगा सुचना फलक  :-

तब मुझे भी ख्याल आया की इस जगह की तारीफ जब मै रायगढ़ में  पदस्थ था तो भी अनेको   मित्रो ने की  , किन्तु मै यहां  आ  नही पाया था।  दूसरे दिन  जीप से श्री नेताम और उनके  एक और मित्र के साथ चल पड़े ,रास्ते काफी सुहावने थे। कहि कहि तेज़ हवा के झोको से ख्याल आता की ये जगह पवन चक्की या इनसे ऊर्जा पैदा कर उसका उपयोग किया जा सकता है। कुछ जगह छत्तीसगढ़ शासन की पहल भी इस दिशा में दिखाई दी।  


 वैसे    जशपुर  जिला के  ब्लॉक मुख्यालय  बागीचा   से यह स्थान   लगभग 120 किलोमीटर दूर है। यह स्थान जशपुर जिले को पर्यटन के क्षेत्र में अलग पहचान देने वाला प्रमुख दर्षनीय स्थल है। कैलाश गुफा को  पहाड़ में चट्टानों को  मात्र 27 दिनों में खुदाई और  काटने से बनाया गया है। समीपस्थ ग्राम सामरबार  में  संस्कृत महाविद्यालय  है। यह हमारे देश में   दूसरा संस्कृत महाविद्यालय   है।  जो की श्री रामेश्वर गहिरा गुरू जी की प्रेरणा से  निर्मित है।  





बगीचा बतौली मुख्य सड़क के बाद कैलाश गुफा पहुंचने वाली 14 कि.मी. की उबड़ खाबड़ सड़क पर जगह जगह नुकीले पत्थर और गड्ढो के चलते हमे  यहॉं  पहुंचने में दिक्कते तो हो रही थी ,पता नही इस सड़क को क्यों नही बनाया गया है।  बगीचा बतौली की पक्की सड़क छोड़ने के बाद ग्राम मैनी से गुफा पहुंचने के लिए कच्ची सड़क पर पत्थरों की भरमार और बड़े बड़े गड्ढों के चलते कैलाश गुफा पहुंचने से पहले ही हमारा  मन खिन्न सा  हो गया ।जशपुर जिले को पर्यटन के क्षेत्र में अलग पहचान देने वाला यह  स्थल कैलाश गुफा तक पहुंचने वाली सड़क की बदहाली  के चलते ही शायद गर्मी के दिनों में भी यह स्थान सुनसान ही था।  महज 14 कि.मी.की दूरी को दो घंटो में तय करने से बाहर का सैलानी इधर दूसरी बार आने का नाम नहीं लेते  है। बीच रास्ते में वाहन खराब होने के बाद दूर दूर तक गाव नही होने से  मदद मिलने की उम्मीद भी  नहीं रहती  है। 

अंबिकापुर  से यहॉं  पहुंचे मेरे साथ के लोगो  ने बताया कि इस धार्मिक और रमणीय स्थल पर वे एक दशक पहले आए थे।उस समय यहॉं  की कच्ची सड़क की हालत आज की तुलना में  काफी अच्छी थी। किन्तु अभी तो जीप को भी सम्हाल कर चलाना पड़  रहा था। मुरम जैसी लाल मिटटी वाली भूमि आलू ,टमाटर की खेती के लिए प्रसिद्ध  है। 
\किन्तु  कैलाश गुफा के समीप पहुचने पर चारो ओर ऊंची पहाड़ियां तथा दूर दूर तक फैली हरियाली के साथ  झर झर  झरते  झरनों का रमणीय दृष्य को देखते ही हमारी  सारी  थकान उतर गयी  यहाँ पर सुन्दर   झरने लगभग ४० फ़ीट ऊपर से गिरते और उची उची पहाड़ो के बीच  घने दरख्तो के बीच से बहते हुए  और केले ,आम  के  काफी तादाद में लगे  वृक्ष यहाँ की  सुंदरता और आकर्षण बढ़ा रहे हैं। कैलाश गुफा में  पहाड़ों  को काटकर बनाये गए गुफा वाले कमरो जिसके बाहर की दिवार में टपकते पानी की बुँदे और इसमें  स्थापित प्राचीन शिव मंदिर का आकर्षण के चलते भी यह पर्यटन स्थल अब  दूर दूर तक अपनी पहचान बना चुका है। बताते है की यहां  पर अनेको दुर्लभ जड़ी बूटी पाई जाती है।  यहॉं  पर सैलानियों की सुविधा पर  काफी ध्यान  देने की आवश्यकता है। जगह के सुनसान होने के कारण कैलाश गुफा आश्रम के पुजारी का कहना था कि इस स्थल पर आवागमन के साधन का अभाव तथा सड़कों की दुर्दषा के चलते सैलानियों की भीड़ पर विपरीत असर पड़ा है। कैलाशगुफा के आस पास रेस्ट हाउस बना कर इस स्थल को विकसित किया जा सकता है। शासन को इस दिशा  में सार्थक प्रयास करने  चाहिए। 



 कैलाश गुफा का प्रमुख   प्राचीन शिव मंदिर के आसपास काले बन्दरों का उत्पात भी बढ़ गया है। इस रमणीय स्थल पर प्रमुख आकर्षण का केन्द्र के रूप में काफी उंचाई से गिरने वाला झरना को माना जाता था। इन दिनों लगभग 40 फीट की ऊँचाई से गिरने वाली पानी की मोटी धारा भी अब लुप्त होकर यहॉं  पानी का पतला झरना ही रह गया है। किन्तु यहॉं पर पत्थरों में काई और कचरे की भरमार रहने से कोई भी सैलानी यहॉं  नहाने का आनंद नहीं ले पाता है। मेरे ड्राइवर ने भी  ट्यूबवैल में नहाना पसंद किया। ,वहां के स्थानीय लोगो से  हमने केले और आम खरीद कर खाए ,वहाँ के आम काफी मीठे है  और किसी भी प्रकार के अन्य नास्ते सामग्री  वहां  उपलब्ध नही थे।  हम लोगो ने  कैलाश गुफा में व्यस्थाके आभाव के  चलते   जल्द से जल्द अँधेरा होने से पहले  वापस लौटने में ही अपनी भलाई समझे । क्युकी यहाँ  पर जंगली जानवर भी आते रहते है। 
       Devendra Kumar Sharma
113 ,sundarnagar ,Raipur ,chattisgadh

Wednesday, 21 January 2015

 सर्कस का जादू क्या आज भी कायम है ... ?
देवेंद्रकुमारशर्मा ११३ सुन्दर नगर रायपुर 

मित्रो आज गूगल बाबा ही हमारे  दादा, नाना दादी नानी है। जिनसे ही आज सारी  बाते मालूम हो पाति है।  आज  कंप्यूटर युग  है   और हर चीज झटपट माउस के एक क्लिक पर उपलब्ध है, तब भी किसी भी रंगारंग कार्यक्रम को  सीधे ही सामने बैठकर  और एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज कारनामे देखने का मजा ही कुछ और है।  फिर वो डांस का प्रोग्राम हो चाहे सिनेमा सर्कस ही क्यों न हो।
 सर्कस का नाम पढ़ते ही हमारे दिमाग में शेर-चीते-भालू के खेल से सजा शानदार टैंट में चल रहा खेल-तमाशा का  ध्यान आता है।और साथ में अगर हाथी, ऊंट, तोते, चिडियां और कुत्ते भी खेल दिखाने लगें तो आंखें आश्चर्य से खुली की खुली रह जाती हैं। लेकिन क्या आप जानते हो कि कभी भारतीय लोगों के मनोरंजन का फिल्म के बाद सबसे लोकप्रिय माध्यम सर्कस अब करीब-करीब बिन जानवरों का खेल दिखाता है? आजकल भी देश में कहि न कहि  सर्कस चल भी रहा है। यह तो  इन सर्कस चलाने वालों की हिम्मत ही है ,कि वह इस प्राचीन कला के माध्यम को हर तरह की परेशानी के बाद भी जीवित रखे हुए हैं।

‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के मालिक संजीव और दिलीप नाथ का कहना है की , ‘सर्कस चलाना बहुत ही  मेहनत का काम है। एक सर्कस में 200 से ज्यादा लोग काम करते हैं। सबके रहने-सहने और खानपान की जिम्मेदारी सर्कस कंपनी की होती है। सभी कलाकार नहीं होते। पर वे एक-दूसरे से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे मोतियों की माला। कुछ का काम होता है तंबू लगाना, उखाड़ना व उनकी देखभाल करना, प्रचार प्रसार करना, तो कुछ लोग जानवरों की सेवा में लगे रहते हैं।
 खेल दिखाने वाले कलाकार तो होते ही हैं, परंतु उन्हें कब और क्या चाहिए और कई बार जब उनका शो खराब हो रहा होता है, तो कैसे जोकर व अन्य लोग उस शो को संभाल लेते हैं, यह देखते ही बनता है।’और जो की काबिलेतारीफ ही है।

भारत में सर्कस का प्रारम्भ 

 यदि कहा  जाये तो भारत में सर्कस के आदिगुरु होने का श्रेय  महाराष्ट्र के श्री विष्णुपंत छत्रे को है। वह कुर्दूवडी रियासत में घोड़े की देखभाल की   करते थे। उनका काम था घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करना। 1879 में वह अपने राजा जी के साथ मुंबई में ‘रॉयल इटैलियन सर्कस’ में खेल देखने गए। वह पर  उसके मालिक ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि सर्कस में खेल दिखाना भारतीयों के बस की बात नहीं है। और  इस अपमान को छत्रे सह नहीं सके और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर एक साल के भीतर ही भारत की पहली सर्कस कंपनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ की नींव रखी और खेल दिखाना  चालू किया  । बाद में उनका साथ देने  केरल के कीलेरी कुन्नीकानन भी उनसे जुड़ गए । वह भारतीय मार्शल आर्ट ‘कालारी पायटू’ के मास्टर थे। उन्होंने सर्कस के कलाकारों को ट्रेनिंग देने के लिए स्कूल खोला। बाद में जितने भी सर्कस भारत में शुरू हुए, उनके अधिकतर मालिक इसी स्कूल से सीखकर विशेष रूप से  सर्कस जगत में आए। इसीलिए ही उन्हें भारतीय सर्कस का पितामह माना जाता है। भारत के मशहूर सर्कसों में ग्रेट रॉयल सर्कस (1909), ग्रैंड बॉम्बे सर्कस 1920 (यही सर्कस आज ‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के नाम से जाना जाता है), ग्रेट रेमन सर्कस 1920, अमर सर्कस 1920, जेमिनी सर्कस 1951, राजकमल सर्कस 1958 और जम्बो सर्कस 1977 हैं।कमला सर्कस जो की एक जहाज दुर्घटना में डूब गया ,देश के आलावा दूसरे देश में भी अपना प्रदर्शन करता था।

 सर्कस की शुरुआत कैसे और क्यों हुई …?

प्राचीन रोम में भी सर्कस होने का प्रमाण मिलता है । बाद में जिप्सियों ने इस खेल को यूरोप तक पहुंचाया। इंग्लैंड में फिलिप एशले ने पहली बार लंदन में 9 जनवरी 1768 को सर्कस का शो दिखाया था। उसने घोड़ों के साथ कुत्तों के खेल को भी सर्कस में स्थान दिया। पहली बार दर्शकों को हंसाने के लिए उसने सर्कस में जोकर को जोड़ा। इंग्लैंड के जॉन बिल रिकेट्स अमेरिका में 3 अप्रैल 1793 को अपना दल लेकर पहुंचे और वहां के लोगों को सर्कस का अद्भुत खेल दिखाया। रूस के सर्कस बहुत अच्छे माने जाते हैं और वहां 1927 में मास्को सर्कस स्कूल की स्थापना हुई।
सर्कस और जानवर
प्राचीन काल से ही सर्कस से जानवर जुड़े हैं। इनके खेल दर्शक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। परंतु सर्कस की कठिन दिनचर्या और ट्रेनिंग जानवरों के लिए बड़ी तकलीफदेह होती है। इसी को लेकर सर्कस में जानवरों के प्रदर्शन पर विरोध होने लगा और पेटा सहित अन्य संगठनों के प्रदर्शन के बाद कई देशों में जानवरों के सर्कस में प्रयोग पर पाबंदी लगने लगी। 1990 में भारत में सुप्रीम कोर्ट ने सर्कस में जंगली जानवरों के प्रयोग पर रोक लगा दी थी। तब से कुछ ही जानवर सर्कस में प्रयोग होते हैं और उन्हें भी बैन करने की मुहिम चलाई जा रही है। ग्रीस पहला यूरोपियन देश है, जिसने सर्कस में किसी भी जानवर का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया है।

जोकर की जिंदगी
 यदि आपने मेरा नाम जोकर फिल्म  देखा होगा तो जोकर के काले सफ़ेद सरे पक्क्ष्  से आप परिचित होंगे।

सर्कस में सबसे ज्यादा तालियां बजती हैं  तो जोकरों के लिए ही । खासकर बच्चे इनका इंतजार करते रहते हैं कि ये कब मंच पर आएंगे। रंग-बिरंगे चेहरे, नकली नाक व बाल लगाकर सबको हंसाने वाले जोकर दो प्रोग्राम के बीच के टाइम में फिलर का काम करते हैं। इस समय में वो सबको खूब हंसाते हैं। कई लोगों की नकल करके, जोक सुनाके वे ऐसा करते हैं। कई बार तो इनके भी अलग कार्यक्रम होते हैं। आमतौर पर जोकर वे बनते हैं, जो शारीरिक विकास में पिछड़ जाते हैं और कद कम रह जाता है। बच्चों जैसे दिखने वाले ये जोकर कई बार साठ-साठ साल की उम्र तक के होते हैं। कई जोकर आम इनसान जितने भी होते हैं, पर तालियां तो छोटे कद वाले जोकर ही बटोर ले जाते हैं। इनका काम भी काफी मेहनतभरा होता है। शो के बाद ये काफी थक जाते हैं।

सर्कस पर किताबें
यूं तो सर्कस पर बहुत किताबें लिखी गई हैं, लेकिन अगर तुम्हें मौका मिले तो एनिड ब्लाइटन की सर्कस सीरीज पर लिखी तीन किताबों को जरूर पढिम्एगा। ये हैं-‘मि. गिलियानोज सर्कस’, ‘हुर्राह फॉर द सर्कस’ और ‘सर्कस डेज एगेन’। हिंदी में संजीव का उपन्यास ‘सर्कस’ पढ़ सकते हैं। सर्कस में ट्रेनर रहे दामू धोत्रे की आत्मकथा वाली पुस्तक भी बहुत अच्छी है।
सर्कस एक नजर में

सर्कस शब्द सर्कल शब्द से बना है, जिसका अर्थ है घेरा।
दुनिया का सबसे पुराना सर्कस प्राचीन रोम में था। आज से करीब 2500 वर्ष पहले बने इस सर्कस का नाम था—‘मैक्सिमम’।
भारत का पहला अपना सर्कस था—‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’। इसका पहला शो मुंबई में 20 मार्च 1880 को हुआ था।
तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका के द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बार्नम एंड बैले सर्कस को दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। इस सर्कस को एक जगह से दूसरी जगह शो करने जाने के लिए दो पूरी ट्रेनों का उपयोग किया जाता है। इसके बेड़े में 100 से ज्यादा हाथी और कई अन्य तरह के जानवर शामिल हैं।
क्या आप भी सर्कस को बार बार देख कर उसे प्रोत्साहित नही  करना चाहेंगे ,....?



Wednesday, 10 December 2014

" मेरी पहली हवाई यात्रा "

 (बादलो के ऊपर जहा  और भी है )

देवेन्द्र कुमार शर्मा  सुन्दर नगर रायपुर


    हम लोगो ने बचपन से   अनेको  बार हवाई जहाज  को उड़ते  देखा   है , जब तक की वह  सिर के ऊपर से पुरी तरह से गुजर कर नज़र से ओझल  न  हो जाए।  लेकिन उस पर चढ़ने का स्वप्न  देखने की गलती मैंने  कभी भी  नहीं की थी  । बचपन में  समीप  से एक बार हवाई जहाज को माना  एरोड्रम से  उड़ते हुए  हुए देख कर   खुद को भाग्यशाली मानता   था  ।

 ये अलग बात है  की अब वो बात मुझे  कभी कभी  बचपना सा लगता है ।मेरी पहली हवाई यात्रा   कुछ ऐसी ही रही जिसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था और वो हो भी गई यूं ही अचानक। प्लेन देवता ने भी सोचा होगा डी के तू कब  तक  मुझमे बैठने से  बचेगा और एक बीमारी मुझे लगा दी ,डाक्टरों ने हमे  इतना डराया की मैंने भी सोचा कि अब ज्यादा दिन का मिहमान तू नही है ,मुझे भी लगा की भैय्ये मरने से पहले ही जिन्दा रहते पुष्पक विमान में चढ़ लू   ।  मरने के बाद क्या पता जमीं मार्ग से ले जाये। स्थिति ऐसी हो गई थी  की बस अब मुंबई तो  जाना ही है।  और जल्दी ही और कल ही ,चाहे तो  हवाई यात्रा भी चलेगी । मरता न क्या करता ,चलो भाई  . आपने  भी सुना होगा गुग्गुल की जड़ी बूटी दवाई के रूप में  काम आता ही है  । ये कैसा होता है कभी जानने की कोशिश तो  नहीं की। पर परिजनों ने वैसा ही कुछ मिलता जुलता नाम का उपयोग कर  गुग्गुल डाट काम  ईटरनेट में – फ्लाईट खोजने में उपयोग   किया। और मिला एक –  जेट एयर वेज़  । शब्दार्थ खोजा तो पता चला –जेट वायु मार्ग

 वैसे  जेटएयर वेज़ के प्रचार में नीली  ड्रेस में एयर होस्टेस एकदम परी सी लग रही थी ।  अब क्या था – हम  इस मुसीबत की दुनिया से काफी उपर, नील आकाश में  परियों के साथ यात्रा  करने वाले थे,शुरु हो गयी तैयारी । टिकट बुक करवाया ईटरनेट से ।

  किन्तु मन को लगा की मोबाइल में टिकट कैसे हो सकता है भाई मगर विश्वास नहीं हुआ कि बिना लाईन में लगे खुद से प्रिटिंग किया हूआ  अपना कागज टिकट कैसे हो सकता है ।  फिर खुद को ऐसे मनाया कि मेरे को ठग सकते है सभी को थोड़े ही न ठगेंगे  साथ में तो दुनिया से परिचित मेरे साले साहब    व् बेटा भी तो संग में है न  ।  कुछ भी हो ,मैंने समझदार यात्री बन  ,  पहले तो  टिकट के ऊपर  छपे नियम-कानुन को  ध्यान से पढ़ा । देखा एक ही बैग ले जाने को कहा है – उसकी लंबाई – चौड़ाई – ऊँचाई – भार, 35 किलो सब निर्धारित है । एक अलग से लैपटाप  भी आप  चाहे तो ले जा सकते है । चलो  ठीक है । उस दिन फ्लाईट शाम को थी । मेरे  बीबी  जिसके पास निर्देशो का पुरी रेडीमेड पोटली रहती है को  मैनें न छेड़ी । क्युकि  पता था – अगर पोटली इकबार  खुली तो, शांति का आशा नहीं थी । और उस दिन को मैं पुरी शुभ यात्रा बनाना चाहता था । फिर किसी को जान बुझकर दुखी करके यात्रा थोड़े ही न बनता है । सो मैनें थोड़ी  ही   बात की, वो खुश और मैं भी खुश । बाई – बाई फिर आफलाईन ।हमारे बहुत सारे साथिओ  के लिए तो  हवाई यात्रा, आटो रिक्शा जैसा है  । मैं  सोचता था की एक बार खाली चढ़ तो लुँ, हवाई जहाज पर, अन्य हवाई यात्रिओ की तरह अपना भी जन्म सार्थक हो जाए ।
वैसे ही पहले बार ही मुंबई छोटे इंजीनियर  बेटे के  पोस्टिंग  के बाद जा रहा था – वो भी हवाई जहाज से । वहाँ घर पे सब  डॉक्टर  के  कथन  से – दुखी हो मेरे घंटे गिन रहे थे । मै भी सोच में  था कि  पता नही क्या हो सशरीर इसी हालत में  लौटूंगा की नही ,  खैर हम एयरपोर्ट पहुंचे पहूँचकर देखा तो सब स्टेन्डर्ड यात्री । ज्यादातर बढ़िया सुटकेश और बढ़िया बैग लेकर चलने वाले ।
 इधर हमारे  रेलवे ,और बस स्टेशन पर तो झोला वाले  या फिर  सस्ते सुटकेश व् बैग वाले  ही  खुब दिखते हैं,ठीक  भी है ,मैंने अपनी आँखों से कीमती  या  बढ़िया सुटकेश वालो को लूटते ,चोरी होते  हुए भी खूब देखा है मन में प्लान हो गया कि अगली बार के लिए एक हवाई यात्रा लायक सैमसोनाईट सुटकेश खरीदना होगा ,

 आखिर हमारे  भी तो कुछ  सम्मान  है की नही  । अभी जो भी , जैसा है, ठीक है।  खैर हमने भी अपना बैग का चेन आदि चेक कर  सामान जमा लिया। मेरी आदत खुद हि इस काम को करने की रहती है। ताकि बाद में असुविधा न हो।
पीयू ,बिटिया  (सिस्टर इन लॉ की बेटी )जो कि  मुंबई में   इंजीनियर  है , हमेशा ही  प्लेन में ही  आती जाती रहती  है  ,ने फ़ोन में  बता दिया था कि पुरी जाँच पड़ताल होती है, सीट नम्बर भी वहीं मिलेगा इसलिए एक घंटा पहले  ही पहुंच जाना  । हम   घर से बिदा लेकर २० की. मी. दूर  विवेकानंद एरोड्रम में  पहुंच गए। एक सिक्योरिटी गार्ड ने बेटे के  हाथ में ई-टिकट देखकर आईडी कार्ड और टिकट चैक करने के बाद  कहा कि आप चाहें तो वहां( दूसरे गेट) से भी एंट्री कर सकते हैं। वहाँ जाकर देखा, बस फर्स्ट क्लास वेटिंग रुम जैसा कुर्सी की लाईन।

 और साफ सुथरा वातावरण।  मैंने पहली बार किसी भी एयरपोर्ट पर पहली बार कदम रखा था ।  हम   जहाँ “चेक इन” लिखा देखा –   खड़ा हो गए  । हम पुरा एक घंटे पहले पहुंचे  थे  ना इसलिए  लाईन  में नबंर एक  पर थे । पुरे बीस मिनट खड़े  रहे वहीं  पीछे मुड़ कर देखा तो लंबी लाईन लगी थी । मैं पुरा गौरवान्वित महसुस कर रहा था उस समय , नहीं तो मुझे एक बार लेट से स्टेशन पहूँचकर चलती गाड़ी में चढ़ने का बुरा अनुभव रहा है । पॉकेट से पैसे अलग साफ । चेक – इन शुरु हो गयी । मेरे सामने एक पट्टी  चलने लगी । एक स्टाफ ने डाल दिया मेरा बैग उस पट्टी पे ।  बेचारा बैग – बिना मालिक का चला गया, एक छोटी सी अँधेरी सुरंग  में ।

 मैंने  एक्स रे करवाया था दो सौ रुपये लगे थे । अरे वाह, और यहाँ सामान का एक्स रे भी फ्री । हमें बगल के दुसरे रास्ते से टिकट देखकर जाने दिया । साले साहब को   बैग  अंदर जाकर नहीं मिला ,मैं वहाँ खड़ा रहा । हमारे   पीछे खड़े कई महाशय अपना सुटकेश लेकर चले गये । उसके बाद दो लोग और  अपना सामान लेकर चले गये । अब  हमारा दिमाग ठनका – कुछ गड़बड़ हुआ है । उनका  बैग देखा तो जाँच करने वालों ने उठाकर रख लिया था । और उन्हें खड़ा देख जाँच करने वाला पुछा – “ये आपका बैग है क्या , पता चला है कि इसमे कोई ठोस चीज़ है ।” “अरे  यार, एक्स रे मशीन तो उस्ताद है “- मैनें सोचा । उन्होंने   कहा “टोर्च  हैं “। उसने  बैग खोलने को कहा – “चैक होगा “। फिर वे  संतुष्ट हो गये  कि ये   उग्रवादी (टाईप) नहीं है  । और  मुक्ति मिली । नही तो बैग से पैक्ड सामान को निकालकर फिर से डालना भी बड़ा कष्टकर होता है ।
 उनलोगों नें उसे पुरा सुरक्षा स्टीकर से सील कर  किया उधर मेरा बैग एक  ने वहीं पर ले लिया । देखा चली गयी बेचारी बैग – फिर एक रोलर  पे  चलती पट्टी में । अब   पारी आई शरीर  और ,मोबाइल के चेक की.मैं देख रहा था कि एक ट्रे में सब मोबाइल और पर्स तक निकाल के रख रहे हैं । रह गया हाथ में सिर्फ बेटे की  अपना हैडबैग। जिसका भी एक्स-रे किया जा चूका था।  ये गार्ड सिर्फ आईडी प्रुफ और बोर्डिंग पास चैक कर रहे थे। मेरे आईकार्ड और बोर्डिंग पास चैक होगया और जैसे ही मैंने आगे बढ़ने की कोशिश की तभी मुझे एक गार्ड ने रोक दिया।
मुझे लगा कि जरूर से ही कोई बात होगी। पता चला कि नहीं आगे वालों की चैकिंग नहीं हुई है तो मुझे और मेरे पीछे की जनता को रोक दिया गया।निपट कर   हवाई अड्डे से सभी लोग अपना सामान (हैंडबैग) लेकर प्लेन पर  चढ़  रहे थे  ,  मैंने सोचा  किस्मत मेरी अगर तेज रही तो ही मिलेगी, खिड़की वाली सीट । पहली बार की यात्रा तो ठहरी न।  , खैर मेरे साइड खिड़की मिल गई।

खैर मैं भी हवाई जहाज पे जा रहा था जो की  ट्रेन की यात्रा से  काफी बेहतर है , अब  सीढ़ियां हटा ली गईं थी। एयरहोस्टेस जो कि उदघोषिता भी थी उसने सूचना दी कि थोड़ी देर में फ्लाइट उड़ने के लिए तैयार है और उदघोषणा बंद होगई।धीरे-धीरे विमान जोरो से   गड गड की आवाज़ करते हुए  बस  की तरह  सरकने लगा और रनवे तक पहुंच गया। विमान थोड़ा रुका और मैंने धरती को जी भरकर पास से देखा व्  अपने बगल में बांयी और की विंग को देखने लगा। विमान रनवे पर चल दिया फिर तेज आवाज़ के जरिए दौड़ने लगा। बस एक छोटे से हल्के झटके के साथ प्लेन  आसमान की तरफ बढ़ गया। धरती पीछे और नीचे छूटती जा रही थी और मैं लगातार नीचे देखता जा रहा था। पर ये क्या, प्लेन की लेफ्ट विंग नीचे की तरफ क्यों झुक रही है। मेरा तो कलेजा मुंह को ही आ रहा था और मैं नीचे देखने से डरने लगा।खैर थोड़ा ऊपर जाकर विमान ठीक से चलने लगा। और एक एयर होस्टेस को कई तरह से मुसीबतों से बचने के नियम कानून ..हाथ को व्यायाम की  मुद्रा में हिलाते देखा ..कुछ समझ आया कुछ नहीं . एहसास हो रहा था कि जैसे चढ़ाई में कुछ दिक्कत हुई है और अब वो समतल सड़क पर ठीक से चलने लगा है। और प्लेन में काफी आवाज़ हो रही थी। लेकिन ऊपर  से धरती को देखना का सुख मुझे बहुत ही प्रफुल्लित कर रहा था। साथ ही लग रहा था कि गूगलअर्थ में जो चित्र उभरते हैं वो सचमुच में ही काफी सही और जीवंत लगते हैं।नीचे धरती, उसके ऊपर बादल, उसके ऊपर हमारा विमान और हमारे विमान के ऊपर सिर्फ और सिर्फ साफ आसमान।  फिर  विमान परिचारिका आयी और अपने साथ  एक टेबल नुमा ट्रे लेकर  नास्ते की चीज लेकर  निकली और पूछा  कि  नाश्ता चाहिए क्या , और  पानी की  बोतल। लोगो ने  नाश्ता  लिया हमारी पहले ही  पेटपूजा हो गई थी , फ़िर वही परिचारिका आकर नाश्ते की प्लेट ले गयी, चूँकि नाश्ते की प्रक्रिया के लिये बहुत ही सीमित समय होता है, तो विमान की सारा स्टॉफ़ बहुत ही मुस्तैदी से कार्य कर रहा था। जैसे ही उन लोगों ने नाश्ते की प्लेट्स ली सभी से वैसे ही कैप्टन का मैसेज आ गया कि आप छत्रपति शिवाजी विमानतल पर उतरने वाले है और फ़िर मौसम की जानकारी दी गई। उससे पहले खिड़की से नजारा देखा तो पूरी मुंबई एक जैसी ही नजर आ रही थी, पहचान नहीं सकते थे कि कौन सी जगह ह

 सुदूर  फ्लैट की रंगबिरंगी  बत्तियों के बीच से उतरना भी इक  रोमांचक अनुभव रहा. मुम्बई एरोड्रम  में  लगता है कि हर 05 मिनट में प्लेन उड़ते और उतरते रहते  है .

  सिर्फ पौने दो घंटे में मैं मुंबई पहुंच गया। पूरी उड़ान के वक्त मैं एक अलग एहसास होता रहा जो कि बिल्कुल अलग था। खैर नीचे उतरते ही रनवे  से बस एरोड्रम के लिए   लग जाती है । वहा से सामान लेकर  निकले. और  वहा  पर मेरे छोटे बेटा जो कि टैक्सी लेकर प्रतीक्छा रत था  के  साथ आगे बढ़ लिये..,,,,,,,,,, ।




Tuesday, 2 December 2014

माँ   बमलेश्वरी   मंदिर   डोंगरगढ़ 
देवेंद्रकुमारशर्मा,सुन्दरनगर,रायपुर,छत्तीसगढ़ 

डोंगरगढ़ भिलाई, दुर्ग और राजनांदगांव के रास्ते  से होते हुये रायपुर से 107 किलोमीटर की दूरी पर है। कोलकाता-मुंबई राष्ट्रीय  राजमार्ग से पच्चीस किलोमीटर  आगे से  दाये ओर  एक संकीर्ण घुमावदार एकल सड़क पर हरे भरे वनस्पति और हल्के जंगलों से  होते हुये वाहन जाता है। सीधे रेल के रास्ते से भी अनेकों  ट्रैन  के माध्यम  से भी पहुँचा जा सकता हैं। डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन जंक्शन की श्रेणी में आता है। यहां सुपर फास्ट ट्रेनों को छोड़कर सारी गाडियां रूकती हैं, लेकिन नवरात्रि में सुपर फास्ट ट्रेनें भी डोंगरगढ़ में रूकती है।  अपनी  निज़ी   गाड़ी  में रायपुर से डोंगरगढ़ तक 03 घण्टे में आराम से भी  पहुँचा  जाया जा सकता हैं ।दुर्ग  शहर से नागपुर जैन  टेम्पल के रास्ते बडाईटोला  ढारा क़स्बा से  होते हुए भी जा सकते है। डोंगरगढ़ राजनांदगांव ज़िले मुख्यालय में  एक तहसील मुख्यालय है। यहा पर मुख्य रूप से   दो मन्दिर  से हि इस क़स्बे  की प्रसिद्धता हैं।  एक पहाड़ी की चोटी  के उपर पर एक 1600 feet. की उचाई  पर  है  बड़ी बमलेश्वरी

 जो कि  मुख्य पर्यटन के केन्द्र हैं।  साथ-साथ मुख्य बमलेश्वरी मंदिर   पहाड़ी के  नीचे  समतल मैदान  में एक और , छोटी  माँ बमलेश्वरी मंदिर 1 /2  किमी  में जमीं सतह से थोड़े  उचे में स्थित   हैं । ये मंदिर नए रूप में निर्माणाधीन  है।  आज इस जगह  ने एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल का रूप ले लिया   है। समीप  ही मेला स्थल है।  मुख्य मंदिर परिसर में  और  इन मंदिरों में (Dashera के पूर्व ) कंवार  की नवरात्रि और चैत्र  (रामनवमी के दौरान) ग्रीष्म  ऋतू  के प्रारम्भ  के दौरान मंदिर की और  झुंड के  झुंड में लोग  पैदल अन्य  वाहन  ,रेल मार्ग  से छत्तीसगढ़ ,महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश ,ओड़िसा  की और से  व् अन्य राज्यो से  भी आसपास के लाखो तीर्थयात्रियों लोग यहाँ पहुँचते ही है।  प्रतिदिन   भी  लोग आते जाते रहते  है।     मंदिर  ही एक मात्र   कसबे का केंद्र बिंदु औरआकर्षण का केंद्र  हैं।  इस  तरह छत्तीसगढ़ में धार्मिक पर्यटन का  सबसे बड़ा केन्द्र पुरातन कामाख्या नगरी है जो पहाड़ों से घिरे होने के कारण पहले डोंगरी और अब डोंगरगढ़ के नाम से जाना जाता है। यहां ऊंची चोटी पर विराजित बगलामुखी मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर छत्तीसगढ़ ही नहीं देश भर के श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केन्द्र बना हुआ है। सन 1964 में खैरागढ़ रियासत के भूतपूर्व नरेश श्री राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर मंदिर का संचालन ट्रस्ट को सौंप दिया था।

मन्दिर  मे  ऊपर जाने के  दो तरीके हैं। 1600 फुट की ऊंचाई में  1100 कदम -कदम चढ़ाई  सीढ़ी मार्ग से चढ़ कर या रज्जु मार्ग  ( रोपवे ट्रॉली ) से ऊपर जाने के रास्ते हैं। व्  पहले पैदल  भी दो रास्ते थे  ऊपर  जाने के सीढ़ी के अलावा एक दुर्गम  पहाड़ चट्टान  में कूद फांद  कर भी जिसके द्वारा भी  वर्ष ८० -८१  में हम लोग  जैसे तैसे नीचे की मंदिर की पीछे के मार्ग से चडे थे। शायद  इसे अब बन्द भी कर दिया गया है। वैसे डोंगर  का मतलब पहाड़ है जबकि गढ़  का मतलब किले से  है।इतिहासकारों और विद्वानों ने इस क्षेत्र को कल्चूरी काल का पाया है लेकिन अन्य उपलब्ध सामग्री जैसे जैन मूर्तियां भी  यहां मिल चुकी हैं,सूक्ष्म मीमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्ति कला पर गोंड कला का प्रमाण परिलक्षित हुआ है।


 रोपवे गाड़ी से  नीचे  चढ़ते  व् उतरते  समय दूर- दूर  तक का  विहंगम  दृश्य दिखलाई पड़ता हैं।  यह कम से कम पांच मिनट की सवारी है। और इस दौरान  हमे  मंदिर की तरफ  उपर फहराता हुआ  ध्वज और त्रिशूल दिखने से  तथा  नीचे  1000  फीट गहरी खाई   की ओर  नज़र डालने से  एक अनोखी खुशी के साथ  साथ  भय भी उत्पन्न करता है। मंदिर के नीचे छीरपानी जलाशय है जहां यात्रियों के लिए बोटिंग की व्यवस्था भी है।सीढ़ियों के रास्ते भी मंदिर के परिसर  तक ऊपर पहुचने में  हमें  कठिन और सरळ चढ़ाई रास्ता  दोनों  हि  मिलता  हैं । और  आप चाहे  कितने  भी थके हुए क्यू  न हो  ऊपर मंदिर के प्राँगण  में  पहुँचते हि  शीतल  हवा  आपकी थकान  उतार  हि    देगी। और  एक नई ऊर्जा से आप ओत -प्रोत  हो जायेंगे।
रोपवे सोमवार से शनिवार तक सुबह आठ से दोपहर दो और फिर अपरान्ह तीन से शाम पौने सात तक चालू रहता है। रविवार को सुबह सात बजे से रात सात बजे तक चालू रहता है। नवरात्रि के मौके पर चौबीसों घंटे रोपवे की सुविधा रहती है।00   बुजुर्ग यात्रियों के लिए कहारों की भी व्यवस्था पहले थी पर रोपवे हो जाने के बाद कहार कम ही हैं।
 किन्तु  ऊपर चढ़ाई के पहुँचने के रास्ते  में पीने के पानी ,छाया तथा  पुरे रास्ते दुकाने  सभी तरह की मिलेगी। यात्रियों के लिए रियायती दर पर भोजन की व्यवस्था भी रहती है। ये  अच्छी बात है क़ि   इस मन्दिर  में हर मौसम में आराम  के लिहाज़ से बनाये गये  विश्रामगृह हैं।  ह  रास्ते में बन्दरो  से  आपको सावधान  रहने  की आवश्यक्ता  है। पर्यटक  इन्हे खाने पीने  की चीज़  देकर इनकी आदत  बिगाड़  चुके हैं। और ये पर्स ,थैली आदि छीन  कर  भी भाग  जाते है। क्यूकि  इनके शिकार एक बार  हमलोग  भी हो चुके है।


मन्दिर के आसपास के प्राकृतिक पहाड़ियों वर्णन से परे सुंदर दिखता  है। और सीधी  रेलवे ट्रैक जो  मैदानों पर दूर तक  फैला है, मन्दिर के  नीचे  की और  देखने पर एक आश्चर्यजनक   परिदृश्य उत्पन्न  करता  है।  मैंने डोंगरगढ़ शहर में  मनभावन हरियाली की  कमी  को  महसूस किया हु । नगरवासियो  को कम से कम बरगद , पीपल या आम आदि के पेड़ लगा  कर इस कमी को जरूर दूर करना चाहिए। ये तो अच्छी ही बात है की

 आसपास के पहाड़ों चट्टानों  व् झील के नज़ारे अप्रत्याशित कल्पना के लिए कारण प्रदान करते हैं। और बरसात के दिनों में  एक अलग ही नज़ारे पैदा करते है। साथ ही दूर तक फैले चट्टानें ,पत्थरो का ढेर  भी अनेको कल्पना का केंद्र बनते है।  ,,,,,, ये    रॉक संरचनाये  मुझे  तो  हमेशा अजीब सा  भ्रम प्रदान करते हैं। और जब भी वहा  जाता हुँ  तो ये  कल्पनाओं  की दूनिया  में  मुझे  ले जाते  है।इसी तरह  की  दृश्य  भानुप्रतापपुर  से कांकेर  तक की बस  मार्ग में भी देखने को  मिलता है।


  किंवदंती है कि,एक स्थानीय राजा Veersen, निःसंतान था और कहा कि हो जाता है। और अपने शाही पुजारियों के सुझावों से  देवताओं को पूजा कर विशेष  रूप से शिव पारवती जी की  करके मनौती मानी  । एक साल के भीतर, रानी वे Madansen  नाम एक पुत्र को जन्म दिया। राजा Veersen ने इसे  भगवान शिव और पार्वती की एक वरदान मान उनकी  सम्मान में  मंदिर बनवाया । और मां Bamleshwari देवी का यह मंदिर जाहिर वर्षों में महान आध्यात्मिक महत्व प्राप्त कर ली है।डोंगरगढ़ के बारे में अनेको कहानी लिखी गई है। जो की नेट में उपलब्ध है।अतः  इस प र मै  ज्यादा लिखना उचित नही समझता।  वैसे राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है।



डोंगरगढ़  की पहाड़ियों की प्राकृतिकता , कृत्रिम  निर्माण कर समाप्त किया जा रहा है.  साथ  ही पहाड़ी और आसपास  की जगह  पर कचरो का ढेर फैलता जा रहा है। जिसे की रोकने जान-जागरूकता  आवश्यक है। तथा चारो तरफ की पहाड़ी की आकार  ,व् खुबसूरती बिगाड़ने  में लगे है जिस पर शासन को अंकुश करना चाहिए ,नही तो वो दिन दूर नही रहेगा जबकि सिर्फ चारो और पक्के  भवन और गन्दगी  ही नज़र आये।
 यहा  पर अन्य  देखने योग्य  स्थान निम्न है -
विशाल बुद्ध प्रतिमा  डोंगरगढ़ में एक पहाड़ी पर बौद्ध धर्म के लोगों का तीर्थ प्रज्ञागिरी स्थापित है। यहां भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है। इसके साथ ही माँ रणचण्डी देवी का मंदिर है जिसे    टोनहिन

 बम्लाई भी कहा जाता है। शहर के इतिहास को जानने  वालो के अनुसार  के अनुसार इस मदिर में जादू -टोने की जांच की जाती है। वर्तमान में बाहरी  लोगो को ज्यादा  इस मंदिर के दर्शन को जाते हुए मैंने नही देखा।  ड़ोगरगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह है।

मंदिर  खुलने  की स्थिति
कार्यदिवस पर - 04:00-12:00
13:00-22:30
शनिवार और रविवार को - 5:00-10:00
कैसे पहुँचें
डोंगरगढ़ जिला मुख्यालय राजनांदगांव से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और अच्छी तरह से राजनांदगांव से बसों के साथ जुड़ा हुआ है। डोंगरगढ़ भी अच्छी तरह से रेल  गाड़ियों के साथ जुड़ा हुआ है। यह नागपुर से 170 किलोमीटर और रायपुर से 100 किलोमीटर की दूरी पर मुंबई-हावड़ा मुख्य लाइन पर है। निकटतम हवाई अड्डा माना  (रायपुर) में है।

मौसम यात्रा करने के लि

डोंगरगढ़ साल भर  बाहर  से भी  आकर  दौरा किया जा सकता है।

(चित्र  साभार  गूगल  से व् अन्य मित्रो से )