सर्कस का जादू क्या आज भी कायम है ... ?
देवेंद्रकुमारशर्मा ११३ सुन्दर नगर रायपुर
मित्रो आज गूगल बाबा ही हमारे दादा, नाना दादी नानी है। जिनसे ही आज सारी बाते मालूम हो पाति है। आज कंप्यूटर युग है और हर चीज झटपट माउस के एक क्लिक पर उपलब्ध है, तब भी किसी भी रंगारंग कार्यक्रम को सीधे ही सामने बैठकर और एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज कारनामे देखने का मजा ही कुछ और है। फिर वो डांस का प्रोग्राम हो चाहे सिनेमा सर्कस ही क्यों न हो।
सर्कस का नाम पढ़ते ही हमारे दिमाग में शेर-चीते-भालू के खेल से सजा शानदार टैंट में चल रहा खेल-तमाशा का ध्यान आता है।और साथ में अगर हाथी, ऊंट, तोते, चिडियां और कुत्ते भी खेल दिखाने लगें तो आंखें आश्चर्य से खुली की खुली रह जाती हैं। लेकिन क्या आप जानते हो कि कभी भारतीय लोगों के मनोरंजन का फिल्म के बाद सबसे लोकप्रिय माध्यम सर्कस अब करीब-करीब बिन जानवरों का खेल दिखाता है? आजकल भी देश में कहि न कहि सर्कस चल भी रहा है। यह तो इन सर्कस चलाने वालों की हिम्मत ही है ,कि वह इस प्राचीन कला के माध्यम को हर तरह की परेशानी के बाद भी जीवित रखे हुए हैं।
‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के मालिक संजीव और दिलीप नाथ का कहना है की , ‘सर्कस चलाना बहुत ही मेहनत का काम है। एक सर्कस में 200 से ज्यादा लोग काम करते हैं। सबके रहने-सहने और खानपान की जिम्मेदारी सर्कस कंपनी की होती है। सभी कलाकार नहीं होते। पर वे एक-दूसरे से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे मोतियों की माला। कुछ का काम होता है तंबू लगाना, उखाड़ना व उनकी देखभाल करना, प्रचार प्रसार करना, तो कुछ लोग जानवरों की सेवा में लगे रहते हैं।
खेल दिखाने वाले कलाकार तो होते ही हैं, परंतु उन्हें कब और क्या चाहिए और कई बार जब उनका शो खराब हो रहा होता है, तो कैसे जोकर व अन्य लोग उस शो को संभाल लेते हैं, यह देखते ही बनता है।’और जो की काबिलेतारीफ ही है।
सर्कस और जानवर
प्राचीन काल से ही सर्कस से जानवर जुड़े हैं। इनके खेल दर्शक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। परंतु सर्कस की कठिन दिनचर्या और ट्रेनिंग जानवरों के लिए बड़ी तकलीफदेह होती है। इसी को लेकर सर्कस में जानवरों के प्रदर्शन पर विरोध होने लगा और पेटा सहित अन्य संगठनों के प्रदर्शन के बाद कई देशों में जानवरों के सर्कस में प्रयोग पर पाबंदी लगने लगी। 1990 में भारत में सुप्रीम कोर्ट ने सर्कस में जंगली जानवरों के प्रयोग पर रोक लगा दी थी। तब से कुछ ही जानवर सर्कस में प्रयोग होते हैं और उन्हें भी बैन करने की मुहिम चलाई जा रही है। ग्रीस पहला यूरोपियन देश है, जिसने सर्कस में किसी भी जानवर का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया है।
जोकर की जिंदगी
यदि आपने मेरा नाम जोकर फिल्म देखा होगा तो जोकर के काले सफ़ेद सरे पक्क्ष् से आप परिचित होंगे।
सर्कस में सबसे ज्यादा तालियां बजती हैं तो जोकरों के लिए ही । खासकर बच्चे इनका इंतजार करते रहते हैं कि ये कब मंच पर आएंगे। रंग-बिरंगे चेहरे, नकली नाक व बाल लगाकर सबको हंसाने वाले जोकर दो प्रोग्राम के बीच के टाइम में फिलर का काम करते हैं। इस समय में वो सबको खूब हंसाते हैं। कई लोगों की नकल करके, जोक सुनाके वे ऐसा करते हैं। कई बार तो इनके भी अलग कार्यक्रम होते हैं। आमतौर पर जोकर वे बनते हैं, जो शारीरिक विकास में पिछड़ जाते हैं और कद कम रह जाता है। बच्चों जैसे दिखने वाले ये जोकर कई बार साठ-साठ साल की उम्र तक के होते हैं। कई जोकर आम इनसान जितने भी होते हैं, पर तालियां तो छोटे कद वाले जोकर ही बटोर ले जाते हैं। इनका काम भी काफी मेहनतभरा होता है। शो के बाद ये काफी थक जाते हैं।
सर्कस पर किताबें
यूं तो सर्कस पर बहुत किताबें लिखी गई हैं, लेकिन अगर तुम्हें मौका मिले तो एनिड ब्लाइटन की सर्कस सीरीज पर लिखी तीन किताबों को जरूर पढिम्एगा। ये हैं-‘मि. गिलियानोज सर्कस’, ‘हुर्राह फॉर द सर्कस’ और ‘सर्कस डेज एगेन’। हिंदी में संजीव का उपन्यास ‘सर्कस’ पढ़ सकते हैं। सर्कस में ट्रेनर रहे दामू धोत्रे की आत्मकथा वाली पुस्तक भी बहुत अच्छी है।
सर्कस एक नजर में
सर्कस शब्द सर्कल शब्द से बना है, जिसका अर्थ है घेरा।
दुनिया का सबसे पुराना सर्कस प्राचीन रोम में था। आज से करीब 2500 वर्ष पहले बने इस सर्कस का नाम था—‘मैक्सिमम’।
भारत का पहला अपना सर्कस था—‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’। इसका पहला शो मुंबई में 20 मार्च 1880 को हुआ था।
तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका के द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बार्नम एंड बैले सर्कस को दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। इस सर्कस को एक जगह से दूसरी जगह शो करने जाने के लिए दो पूरी ट्रेनों का उपयोग किया जाता है। इसके बेड़े में 100 से ज्यादा हाथी और कई अन्य तरह के जानवर शामिल हैं।
क्या आप भी सर्कस को बार बार देख कर उसे प्रोत्साहित नही करना चाहेंगे ,....?
देवेंद्रकुमारशर्मा ११३ सुन्दर नगर रायपुर
मित्रो आज गूगल बाबा ही हमारे दादा, नाना दादी नानी है। जिनसे ही आज सारी बाते मालूम हो पाति है। आज कंप्यूटर युग है और हर चीज झटपट माउस के एक क्लिक पर उपलब्ध है, तब भी किसी भी रंगारंग कार्यक्रम को सीधे ही सामने बैठकर और एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज कारनामे देखने का मजा ही कुछ और है। फिर वो डांस का प्रोग्राम हो चाहे सिनेमा सर्कस ही क्यों न हो।
सर्कस का नाम पढ़ते ही हमारे दिमाग में शेर-चीते-भालू के खेल से सजा शानदार टैंट में चल रहा खेल-तमाशा का ध्यान आता है।और साथ में अगर हाथी, ऊंट, तोते, चिडियां और कुत्ते भी खेल दिखाने लगें तो आंखें आश्चर्य से खुली की खुली रह जाती हैं। लेकिन क्या आप जानते हो कि कभी भारतीय लोगों के मनोरंजन का फिल्म के बाद सबसे लोकप्रिय माध्यम सर्कस अब करीब-करीब बिन जानवरों का खेल दिखाता है? आजकल भी देश में कहि न कहि सर्कस चल भी रहा है। यह तो इन सर्कस चलाने वालों की हिम्मत ही है ,कि वह इस प्राचीन कला के माध्यम को हर तरह की परेशानी के बाद भी जीवित रखे हुए हैं।
‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के मालिक संजीव और दिलीप नाथ का कहना है की , ‘सर्कस चलाना बहुत ही मेहनत का काम है। एक सर्कस में 200 से ज्यादा लोग काम करते हैं। सबके रहने-सहने और खानपान की जिम्मेदारी सर्कस कंपनी की होती है। सभी कलाकार नहीं होते। पर वे एक-दूसरे से ऐसे जुड़े होते हैं, जैसे मोतियों की माला। कुछ का काम होता है तंबू लगाना, उखाड़ना व उनकी देखभाल करना, प्रचार प्रसार करना, तो कुछ लोग जानवरों की सेवा में लगे रहते हैं।
खेल दिखाने वाले कलाकार तो होते ही हैं, परंतु उन्हें कब और क्या चाहिए और कई बार जब उनका शो खराब हो रहा होता है, तो कैसे जोकर व अन्य लोग उस शो को संभाल लेते हैं, यह देखते ही बनता है।’और जो की काबिलेतारीफ ही है।
भारत में सर्कस का प्रारम्भ
यदि कहा जाये तो भारत में सर्कस के आदिगुरु होने का श्रेय महाराष्ट्र के श्री विष्णुपंत छत्रे को है। वह कुर्दूवडी रियासत में घोड़े की देखभाल की करते थे। उनका काम था घोड़े पर करतब दिखाकर राजा को प्रसन्न करना। 1879 में वह अपने राजा जी के साथ मुंबई में ‘रॉयल इटैलियन सर्कस’ में खेल देखने गए। वह पर उसके मालिक ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए कह दिया कि सर्कस में खेल दिखाना भारतीयों के बस की बात नहीं है। और इस अपमान को छत्रे सह नहीं सके और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर एक साल के भीतर ही भारत की पहली सर्कस कंपनी ‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’ की नींव रखी और खेल दिखाना चालू किया । बाद में उनका साथ देने केरल के कीलेरी कुन्नीकानन भी उनसे जुड़ गए । वह भारतीय मार्शल आर्ट ‘कालारी पायटू’ के मास्टर थे। उन्होंने सर्कस के कलाकारों को ट्रेनिंग देने के लिए स्कूल खोला। बाद में जितने भी सर्कस भारत में शुरू हुए, उनके अधिकतर मालिक इसी स्कूल से सीखकर विशेष रूप से सर्कस जगत में आए। इसीलिए ही उन्हें भारतीय सर्कस का पितामह माना जाता है। भारत के मशहूर सर्कसों में ग्रेट रॉयल सर्कस (1909), ग्रैंड बॉम्बे सर्कस 1920 (यही सर्कस आज ‘द ग्रेट बॉम्बे सर्कस’ के नाम से जाना जाता है), ग्रेट रेमन सर्कस 1920, अमर सर्कस 1920, जेमिनी सर्कस 1951, राजकमल सर्कस 1958 और जम्बो सर्कस 1977 हैं।कमला सर्कस जो की एक जहाज दुर्घटना में डूब गया ,देश के आलावा दूसरे देश में भी अपना प्रदर्शन करता था।सर्कस की शुरुआत कैसे और क्यों हुई …?
प्राचीन रोम में भी सर्कस होने का प्रमाण मिलता है । बाद में जिप्सियों ने इस खेल को यूरोप तक पहुंचाया। इंग्लैंड में फिलिप एशले ने पहली बार लंदन में 9 जनवरी 1768 को सर्कस का शो दिखाया था। उसने घोड़ों के साथ कुत्तों के खेल को भी सर्कस में स्थान दिया। पहली बार दर्शकों को हंसाने के लिए उसने सर्कस में जोकर को जोड़ा। इंग्लैंड के जॉन बिल रिकेट्स अमेरिका में 3 अप्रैल 1793 को अपना दल लेकर पहुंचे और वहां के लोगों को सर्कस का अद्भुत खेल दिखाया। रूस के सर्कस बहुत अच्छे माने जाते हैं और वहां 1927 में मास्को सर्कस स्कूल की स्थापना हुई।सर्कस और जानवर
प्राचीन काल से ही सर्कस से जानवर जुड़े हैं। इनके खेल दर्शक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। परंतु सर्कस की कठिन दिनचर्या और ट्रेनिंग जानवरों के लिए बड़ी तकलीफदेह होती है। इसी को लेकर सर्कस में जानवरों के प्रदर्शन पर विरोध होने लगा और पेटा सहित अन्य संगठनों के प्रदर्शन के बाद कई देशों में जानवरों के सर्कस में प्रयोग पर पाबंदी लगने लगी। 1990 में भारत में सुप्रीम कोर्ट ने सर्कस में जंगली जानवरों के प्रयोग पर रोक लगा दी थी। तब से कुछ ही जानवर सर्कस में प्रयोग होते हैं और उन्हें भी बैन करने की मुहिम चलाई जा रही है। ग्रीस पहला यूरोपियन देश है, जिसने सर्कस में किसी भी जानवर का उपयोग करने पर प्रतिबंध लगाया है।
जोकर की जिंदगी
यदि आपने मेरा नाम जोकर फिल्म देखा होगा तो जोकर के काले सफ़ेद सरे पक्क्ष् से आप परिचित होंगे।
सर्कस में सबसे ज्यादा तालियां बजती हैं तो जोकरों के लिए ही । खासकर बच्चे इनका इंतजार करते रहते हैं कि ये कब मंच पर आएंगे। रंग-बिरंगे चेहरे, नकली नाक व बाल लगाकर सबको हंसाने वाले जोकर दो प्रोग्राम के बीच के टाइम में फिलर का काम करते हैं। इस समय में वो सबको खूब हंसाते हैं। कई लोगों की नकल करके, जोक सुनाके वे ऐसा करते हैं। कई बार तो इनके भी अलग कार्यक्रम होते हैं। आमतौर पर जोकर वे बनते हैं, जो शारीरिक विकास में पिछड़ जाते हैं और कद कम रह जाता है। बच्चों जैसे दिखने वाले ये जोकर कई बार साठ-साठ साल की उम्र तक के होते हैं। कई जोकर आम इनसान जितने भी होते हैं, पर तालियां तो छोटे कद वाले जोकर ही बटोर ले जाते हैं। इनका काम भी काफी मेहनतभरा होता है। शो के बाद ये काफी थक जाते हैं।
सर्कस पर किताबें
यूं तो सर्कस पर बहुत किताबें लिखी गई हैं, लेकिन अगर तुम्हें मौका मिले तो एनिड ब्लाइटन की सर्कस सीरीज पर लिखी तीन किताबों को जरूर पढिम्एगा। ये हैं-‘मि. गिलियानोज सर्कस’, ‘हुर्राह फॉर द सर्कस’ और ‘सर्कस डेज एगेन’। हिंदी में संजीव का उपन्यास ‘सर्कस’ पढ़ सकते हैं। सर्कस में ट्रेनर रहे दामू धोत्रे की आत्मकथा वाली पुस्तक भी बहुत अच्छी है।
सर्कस एक नजर में
सर्कस शब्द सर्कल शब्द से बना है, जिसका अर्थ है घेरा।
दुनिया का सबसे पुराना सर्कस प्राचीन रोम में था। आज से करीब 2500 वर्ष पहले बने इस सर्कस का नाम था—‘मैक्सिमम’।
भारत का पहला अपना सर्कस था—‘द ग्रेट इंडियन सर्कस’। इसका पहला शो मुंबई में 20 मार्च 1880 को हुआ था।
तुम्हें जानकर हैरानी होगी कि अमेरिका के द रिंगलिंग ब्रदर्स एंड बार्नम एंड बैले सर्कस को दुनिया का सबसे बड़ा सर्कस माना जाता है। इस सर्कस को एक जगह से दूसरी जगह शो करने जाने के लिए दो पूरी ट्रेनों का उपयोग किया जाता है। इसके बेड़े में 100 से ज्यादा हाथी और कई अन्य तरह के जानवर शामिल हैं।
क्या आप भी सर्कस को बार बार देख कर उसे प्रोत्साहित नही करना चाहेंगे ,....?
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