Wednesday, 10 December 2014

" मेरी पहली हवाई यात्रा "

 (बादलो के ऊपर जहा  और भी है )

देवेन्द्र कुमार शर्मा  सुन्दर नगर रायपुर


    हम लोगो ने बचपन से   अनेको  बार हवाई जहाज  को उड़ते  देखा   है , जब तक की वह  सिर के ऊपर से पुरी तरह से गुजर कर नज़र से ओझल  न  हो जाए।  लेकिन उस पर चढ़ने का स्वप्न  देखने की गलती मैंने  कभी भी  नहीं की थी  । बचपन में  समीप  से एक बार हवाई जहाज को माना  एरोड्रम से  उड़ते हुए  हुए देख कर   खुद को भाग्यशाली मानता   था  ।

 ये अलग बात है  की अब वो बात मुझे  कभी कभी  बचपना सा लगता है ।मेरी पहली हवाई यात्रा   कुछ ऐसी ही रही जिसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था और वो हो भी गई यूं ही अचानक। प्लेन देवता ने भी सोचा होगा डी के तू कब  तक  मुझमे बैठने से  बचेगा और एक बीमारी मुझे लगा दी ,डाक्टरों ने हमे  इतना डराया की मैंने भी सोचा कि अब ज्यादा दिन का मिहमान तू नही है ,मुझे भी लगा की भैय्ये मरने से पहले ही जिन्दा रहते पुष्पक विमान में चढ़ लू   ।  मरने के बाद क्या पता जमीं मार्ग से ले जाये। स्थिति ऐसी हो गई थी  की बस अब मुंबई तो  जाना ही है।  और जल्दी ही और कल ही ,चाहे तो  हवाई यात्रा भी चलेगी । मरता न क्या करता ,चलो भाई  . आपने  भी सुना होगा गुग्गुल की जड़ी बूटी दवाई के रूप में  काम आता ही है  । ये कैसा होता है कभी जानने की कोशिश तो  नहीं की। पर परिजनों ने वैसा ही कुछ मिलता जुलता नाम का उपयोग कर  गुग्गुल डाट काम  ईटरनेट में – फ्लाईट खोजने में उपयोग   किया। और मिला एक –  जेट एयर वेज़  । शब्दार्थ खोजा तो पता चला –जेट वायु मार्ग

 वैसे  जेटएयर वेज़ के प्रचार में नीली  ड्रेस में एयर होस्टेस एकदम परी सी लग रही थी ।  अब क्या था – हम  इस मुसीबत की दुनिया से काफी उपर, नील आकाश में  परियों के साथ यात्रा  करने वाले थे,शुरु हो गयी तैयारी । टिकट बुक करवाया ईटरनेट से ।

  किन्तु मन को लगा की मोबाइल में टिकट कैसे हो सकता है भाई मगर विश्वास नहीं हुआ कि बिना लाईन में लगे खुद से प्रिटिंग किया हूआ  अपना कागज टिकट कैसे हो सकता है ।  फिर खुद को ऐसे मनाया कि मेरे को ठग सकते है सभी को थोड़े ही न ठगेंगे  साथ में तो दुनिया से परिचित मेरे साले साहब    व् बेटा भी तो संग में है न  ।  कुछ भी हो ,मैंने समझदार यात्री बन  ,  पहले तो  टिकट के ऊपर  छपे नियम-कानुन को  ध्यान से पढ़ा । देखा एक ही बैग ले जाने को कहा है – उसकी लंबाई – चौड़ाई – ऊँचाई – भार, 35 किलो सब निर्धारित है । एक अलग से लैपटाप  भी आप  चाहे तो ले जा सकते है । चलो  ठीक है । उस दिन फ्लाईट शाम को थी । मेरे  बीबी  जिसके पास निर्देशो का पुरी रेडीमेड पोटली रहती है को  मैनें न छेड़ी । क्युकि  पता था – अगर पोटली इकबार  खुली तो, शांति का आशा नहीं थी । और उस दिन को मैं पुरी शुभ यात्रा बनाना चाहता था । फिर किसी को जान बुझकर दुखी करके यात्रा थोड़े ही न बनता है । सो मैनें थोड़ी  ही   बात की, वो खुश और मैं भी खुश । बाई – बाई फिर आफलाईन ।हमारे बहुत सारे साथिओ  के लिए तो  हवाई यात्रा, आटो रिक्शा जैसा है  । मैं  सोचता था की एक बार खाली चढ़ तो लुँ, हवाई जहाज पर, अन्य हवाई यात्रिओ की तरह अपना भी जन्म सार्थक हो जाए ।
वैसे ही पहले बार ही मुंबई छोटे इंजीनियर  बेटे के  पोस्टिंग  के बाद जा रहा था – वो भी हवाई जहाज से । वहाँ घर पे सब  डॉक्टर  के  कथन  से – दुखी हो मेरे घंटे गिन रहे थे । मै भी सोच में  था कि  पता नही क्या हो सशरीर इसी हालत में  लौटूंगा की नही ,  खैर हम एयरपोर्ट पहुंचे पहूँचकर देखा तो सब स्टेन्डर्ड यात्री । ज्यादातर बढ़िया सुटकेश और बढ़िया बैग लेकर चलने वाले ।
 इधर हमारे  रेलवे ,और बस स्टेशन पर तो झोला वाले  या फिर  सस्ते सुटकेश व् बैग वाले  ही  खुब दिखते हैं,ठीक  भी है ,मैंने अपनी आँखों से कीमती  या  बढ़िया सुटकेश वालो को लूटते ,चोरी होते  हुए भी खूब देखा है मन में प्लान हो गया कि अगली बार के लिए एक हवाई यात्रा लायक सैमसोनाईट सुटकेश खरीदना होगा ,

 आखिर हमारे  भी तो कुछ  सम्मान  है की नही  । अभी जो भी , जैसा है, ठीक है।  खैर हमने भी अपना बैग का चेन आदि चेक कर  सामान जमा लिया। मेरी आदत खुद हि इस काम को करने की रहती है। ताकि बाद में असुविधा न हो।
पीयू ,बिटिया  (सिस्टर इन लॉ की बेटी )जो कि  मुंबई में   इंजीनियर  है , हमेशा ही  प्लेन में ही  आती जाती रहती  है  ,ने फ़ोन में  बता दिया था कि पुरी जाँच पड़ताल होती है, सीट नम्बर भी वहीं मिलेगा इसलिए एक घंटा पहले  ही पहुंच जाना  । हम   घर से बिदा लेकर २० की. मी. दूर  विवेकानंद एरोड्रम में  पहुंच गए। एक सिक्योरिटी गार्ड ने बेटे के  हाथ में ई-टिकट देखकर आईडी कार्ड और टिकट चैक करने के बाद  कहा कि आप चाहें तो वहां( दूसरे गेट) से भी एंट्री कर सकते हैं। वहाँ जाकर देखा, बस फर्स्ट क्लास वेटिंग रुम जैसा कुर्सी की लाईन।

 और साफ सुथरा वातावरण।  मैंने पहली बार किसी भी एयरपोर्ट पर पहली बार कदम रखा था ।  हम   जहाँ “चेक इन” लिखा देखा –   खड़ा हो गए  । हम पुरा एक घंटे पहले पहुंचे  थे  ना इसलिए  लाईन  में नबंर एक  पर थे । पुरे बीस मिनट खड़े  रहे वहीं  पीछे मुड़ कर देखा तो लंबी लाईन लगी थी । मैं पुरा गौरवान्वित महसुस कर रहा था उस समय , नहीं तो मुझे एक बार लेट से स्टेशन पहूँचकर चलती गाड़ी में चढ़ने का बुरा अनुभव रहा है । पॉकेट से पैसे अलग साफ । चेक – इन शुरु हो गयी । मेरे सामने एक पट्टी  चलने लगी । एक स्टाफ ने डाल दिया मेरा बैग उस पट्टी पे ।  बेचारा बैग – बिना मालिक का चला गया, एक छोटी सी अँधेरी सुरंग  में ।

 मैंने  एक्स रे करवाया था दो सौ रुपये लगे थे । अरे वाह, और यहाँ सामान का एक्स रे भी फ्री । हमें बगल के दुसरे रास्ते से टिकट देखकर जाने दिया । साले साहब को   बैग  अंदर जाकर नहीं मिला ,मैं वहाँ खड़ा रहा । हमारे   पीछे खड़े कई महाशय अपना सुटकेश लेकर चले गये । उसके बाद दो लोग और  अपना सामान लेकर चले गये । अब  हमारा दिमाग ठनका – कुछ गड़बड़ हुआ है । उनका  बैग देखा तो जाँच करने वालों ने उठाकर रख लिया था । और उन्हें खड़ा देख जाँच करने वाला पुछा – “ये आपका बैग है क्या , पता चला है कि इसमे कोई ठोस चीज़ है ।” “अरे  यार, एक्स रे मशीन तो उस्ताद है “- मैनें सोचा । उन्होंने   कहा “टोर्च  हैं “। उसने  बैग खोलने को कहा – “चैक होगा “। फिर वे  संतुष्ट हो गये  कि ये   उग्रवादी (टाईप) नहीं है  । और  मुक्ति मिली । नही तो बैग से पैक्ड सामान को निकालकर फिर से डालना भी बड़ा कष्टकर होता है ।
 उनलोगों नें उसे पुरा सुरक्षा स्टीकर से सील कर  किया उधर मेरा बैग एक  ने वहीं पर ले लिया । देखा चली गयी बेचारी बैग – फिर एक रोलर  पे  चलती पट्टी में । अब   पारी आई शरीर  और ,मोबाइल के चेक की.मैं देख रहा था कि एक ट्रे में सब मोबाइल और पर्स तक निकाल के रख रहे हैं । रह गया हाथ में सिर्फ बेटे की  अपना हैडबैग। जिसका भी एक्स-रे किया जा चूका था।  ये गार्ड सिर्फ आईडी प्रुफ और बोर्डिंग पास चैक कर रहे थे। मेरे आईकार्ड और बोर्डिंग पास चैक होगया और जैसे ही मैंने आगे बढ़ने की कोशिश की तभी मुझे एक गार्ड ने रोक दिया।
मुझे लगा कि जरूर से ही कोई बात होगी। पता चला कि नहीं आगे वालों की चैकिंग नहीं हुई है तो मुझे और मेरे पीछे की जनता को रोक दिया गया।निपट कर   हवाई अड्डे से सभी लोग अपना सामान (हैंडबैग) लेकर प्लेन पर  चढ़  रहे थे  ,  मैंने सोचा  किस्मत मेरी अगर तेज रही तो ही मिलेगी, खिड़की वाली सीट । पहली बार की यात्रा तो ठहरी न।  , खैर मेरे साइड खिड़की मिल गई।

खैर मैं भी हवाई जहाज पे जा रहा था जो की  ट्रेन की यात्रा से  काफी बेहतर है , अब  सीढ़ियां हटा ली गईं थी। एयरहोस्टेस जो कि उदघोषिता भी थी उसने सूचना दी कि थोड़ी देर में फ्लाइट उड़ने के लिए तैयार है और उदघोषणा बंद होगई।धीरे-धीरे विमान जोरो से   गड गड की आवाज़ करते हुए  बस  की तरह  सरकने लगा और रनवे तक पहुंच गया। विमान थोड़ा रुका और मैंने धरती को जी भरकर पास से देखा व्  अपने बगल में बांयी और की विंग को देखने लगा। विमान रनवे पर चल दिया फिर तेज आवाज़ के जरिए दौड़ने लगा। बस एक छोटे से हल्के झटके के साथ प्लेन  आसमान की तरफ बढ़ गया। धरती पीछे और नीचे छूटती जा रही थी और मैं लगातार नीचे देखता जा रहा था। पर ये क्या, प्लेन की लेफ्ट विंग नीचे की तरफ क्यों झुक रही है। मेरा तो कलेजा मुंह को ही आ रहा था और मैं नीचे देखने से डरने लगा।खैर थोड़ा ऊपर जाकर विमान ठीक से चलने लगा। और एक एयर होस्टेस को कई तरह से मुसीबतों से बचने के नियम कानून ..हाथ को व्यायाम की  मुद्रा में हिलाते देखा ..कुछ समझ आया कुछ नहीं . एहसास हो रहा था कि जैसे चढ़ाई में कुछ दिक्कत हुई है और अब वो समतल सड़क पर ठीक से चलने लगा है। और प्लेन में काफी आवाज़ हो रही थी। लेकिन ऊपर  से धरती को देखना का सुख मुझे बहुत ही प्रफुल्लित कर रहा था। साथ ही लग रहा था कि गूगलअर्थ में जो चित्र उभरते हैं वो सचमुच में ही काफी सही और जीवंत लगते हैं।नीचे धरती, उसके ऊपर बादल, उसके ऊपर हमारा विमान और हमारे विमान के ऊपर सिर्फ और सिर्फ साफ आसमान।  फिर  विमान परिचारिका आयी और अपने साथ  एक टेबल नुमा ट्रे लेकर  नास्ते की चीज लेकर  निकली और पूछा  कि  नाश्ता चाहिए क्या , और  पानी की  बोतल। लोगो ने  नाश्ता  लिया हमारी पहले ही  पेटपूजा हो गई थी , फ़िर वही परिचारिका आकर नाश्ते की प्लेट ले गयी, चूँकि नाश्ते की प्रक्रिया के लिये बहुत ही सीमित समय होता है, तो विमान की सारा स्टॉफ़ बहुत ही मुस्तैदी से कार्य कर रहा था। जैसे ही उन लोगों ने नाश्ते की प्लेट्स ली सभी से वैसे ही कैप्टन का मैसेज आ गया कि आप छत्रपति शिवाजी विमानतल पर उतरने वाले है और फ़िर मौसम की जानकारी दी गई। उससे पहले खिड़की से नजारा देखा तो पूरी मुंबई एक जैसी ही नजर आ रही थी, पहचान नहीं सकते थे कि कौन सी जगह ह

 सुदूर  फ्लैट की रंगबिरंगी  बत्तियों के बीच से उतरना भी इक  रोमांचक अनुभव रहा. मुम्बई एरोड्रम  में  लगता है कि हर 05 मिनट में प्लेन उड़ते और उतरते रहते  है .

  सिर्फ पौने दो घंटे में मैं मुंबई पहुंच गया। पूरी उड़ान के वक्त मैं एक अलग एहसास होता रहा जो कि बिल्कुल अलग था। खैर नीचे उतरते ही रनवे  से बस एरोड्रम के लिए   लग जाती है । वहा से सामान लेकर  निकले. और  वहा  पर मेरे छोटे बेटा जो कि टैक्सी लेकर प्रतीक्छा रत था  के  साथ आगे बढ़ लिये..,,,,,,,,,, ।




Tuesday, 2 December 2014

माँ   बमलेश्वरी   मंदिर   डोंगरगढ़ 
देवेंद्रकुमारशर्मा,सुन्दरनगर,रायपुर,छत्तीसगढ़ 

डोंगरगढ़ भिलाई, दुर्ग और राजनांदगांव के रास्ते  से होते हुये रायपुर से 107 किलोमीटर की दूरी पर है। कोलकाता-मुंबई राष्ट्रीय  राजमार्ग से पच्चीस किलोमीटर  आगे से  दाये ओर  एक संकीर्ण घुमावदार एकल सड़क पर हरे भरे वनस्पति और हल्के जंगलों से  होते हुये वाहन जाता है। सीधे रेल के रास्ते से भी अनेकों  ट्रैन  के माध्यम  से भी पहुँचा जा सकता हैं। डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन जंक्शन की श्रेणी में आता है। यहां सुपर फास्ट ट्रेनों को छोड़कर सारी गाडियां रूकती हैं, लेकिन नवरात्रि में सुपर फास्ट ट्रेनें भी डोंगरगढ़ में रूकती है।  अपनी  निज़ी   गाड़ी  में रायपुर से डोंगरगढ़ तक 03 घण्टे में आराम से भी  पहुँचा  जाया जा सकता हैं ।दुर्ग  शहर से नागपुर जैन  टेम्पल के रास्ते बडाईटोला  ढारा क़स्बा से  होते हुए भी जा सकते है। डोंगरगढ़ राजनांदगांव ज़िले मुख्यालय में  एक तहसील मुख्यालय है। यहा पर मुख्य रूप से   दो मन्दिर  से हि इस क़स्बे  की प्रसिद्धता हैं।  एक पहाड़ी की चोटी  के उपर पर एक 1600 feet. की उचाई  पर  है  बड़ी बमलेश्वरी

 जो कि  मुख्य पर्यटन के केन्द्र हैं।  साथ-साथ मुख्य बमलेश्वरी मंदिर   पहाड़ी के  नीचे  समतल मैदान  में एक और , छोटी  माँ बमलेश्वरी मंदिर 1 /2  किमी  में जमीं सतह से थोड़े  उचे में स्थित   हैं । ये मंदिर नए रूप में निर्माणाधीन  है।  आज इस जगह  ने एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल का रूप ले लिया   है। समीप  ही मेला स्थल है।  मुख्य मंदिर परिसर में  और  इन मंदिरों में (Dashera के पूर्व ) कंवार  की नवरात्रि और चैत्र  (रामनवमी के दौरान) ग्रीष्म  ऋतू  के प्रारम्भ  के दौरान मंदिर की और  झुंड के  झुंड में लोग  पैदल अन्य  वाहन  ,रेल मार्ग  से छत्तीसगढ़ ,महाराष्ट्र ,मध्यप्रदेश ,ओड़िसा  की और से  व् अन्य राज्यो से  भी आसपास के लाखो तीर्थयात्रियों लोग यहाँ पहुँचते ही है।  प्रतिदिन   भी  लोग आते जाते रहते  है।     मंदिर  ही एक मात्र   कसबे का केंद्र बिंदु औरआकर्षण का केंद्र  हैं।  इस  तरह छत्तीसगढ़ में धार्मिक पर्यटन का  सबसे बड़ा केन्द्र पुरातन कामाख्या नगरी है जो पहाड़ों से घिरे होने के कारण पहले डोंगरी और अब डोंगरगढ़ के नाम से जाना जाता है। यहां ऊंची चोटी पर विराजित बगलामुखी मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर छत्तीसगढ़ ही नहीं देश भर के श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केन्द्र बना हुआ है। सन 1964 में खैरागढ़ रियासत के भूतपूर्व नरेश श्री राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर मंदिर का संचालन ट्रस्ट को सौंप दिया था।

मन्दिर  मे  ऊपर जाने के  दो तरीके हैं। 1600 फुट की ऊंचाई में  1100 कदम -कदम चढ़ाई  सीढ़ी मार्ग से चढ़ कर या रज्जु मार्ग  ( रोपवे ट्रॉली ) से ऊपर जाने के रास्ते हैं। व्  पहले पैदल  भी दो रास्ते थे  ऊपर  जाने के सीढ़ी के अलावा एक दुर्गम  पहाड़ चट्टान  में कूद फांद  कर भी जिसके द्वारा भी  वर्ष ८० -८१  में हम लोग  जैसे तैसे नीचे की मंदिर की पीछे के मार्ग से चडे थे। शायद  इसे अब बन्द भी कर दिया गया है। वैसे डोंगर  का मतलब पहाड़ है जबकि गढ़  का मतलब किले से  है।इतिहासकारों और विद्वानों ने इस क्षेत्र को कल्चूरी काल का पाया है लेकिन अन्य उपलब्ध सामग्री जैसे जैन मूर्तियां भी  यहां मिल चुकी हैं,सूक्ष्म मीमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्ति कला पर गोंड कला का प्रमाण परिलक्षित हुआ है।


 रोपवे गाड़ी से  नीचे  चढ़ते  व् उतरते  समय दूर- दूर  तक का  विहंगम  दृश्य दिखलाई पड़ता हैं।  यह कम से कम पांच मिनट की सवारी है। और इस दौरान  हमे  मंदिर की तरफ  उपर फहराता हुआ  ध्वज और त्रिशूल दिखने से  तथा  नीचे  1000  फीट गहरी खाई   की ओर  नज़र डालने से  एक अनोखी खुशी के साथ  साथ  भय भी उत्पन्न करता है। मंदिर के नीचे छीरपानी जलाशय है जहां यात्रियों के लिए बोटिंग की व्यवस्था भी है।सीढ़ियों के रास्ते भी मंदिर के परिसर  तक ऊपर पहुचने में  हमें  कठिन और सरळ चढ़ाई रास्ता  दोनों  हि  मिलता  हैं । और  आप चाहे  कितने  भी थके हुए क्यू  न हो  ऊपर मंदिर के प्राँगण  में  पहुँचते हि  शीतल  हवा  आपकी थकान  उतार  हि    देगी। और  एक नई ऊर्जा से आप ओत -प्रोत  हो जायेंगे।
रोपवे सोमवार से शनिवार तक सुबह आठ से दोपहर दो और फिर अपरान्ह तीन से शाम पौने सात तक चालू रहता है। रविवार को सुबह सात बजे से रात सात बजे तक चालू रहता है। नवरात्रि के मौके पर चौबीसों घंटे रोपवे की सुविधा रहती है।00   बुजुर्ग यात्रियों के लिए कहारों की भी व्यवस्था पहले थी पर रोपवे हो जाने के बाद कहार कम ही हैं।
 किन्तु  ऊपर चढ़ाई के पहुँचने के रास्ते  में पीने के पानी ,छाया तथा  पुरे रास्ते दुकाने  सभी तरह की मिलेगी। यात्रियों के लिए रियायती दर पर भोजन की व्यवस्था भी रहती है। ये  अच्छी बात है क़ि   इस मन्दिर  में हर मौसम में आराम  के लिहाज़ से बनाये गये  विश्रामगृह हैं।  ह  रास्ते में बन्दरो  से  आपको सावधान  रहने  की आवश्यक्ता  है। पर्यटक  इन्हे खाने पीने  की चीज़  देकर इनकी आदत  बिगाड़  चुके हैं। और ये पर्स ,थैली आदि छीन  कर  भी भाग  जाते है। क्यूकि  इनके शिकार एक बार  हमलोग  भी हो चुके है।


मन्दिर के आसपास के प्राकृतिक पहाड़ियों वर्णन से परे सुंदर दिखता  है। और सीधी  रेलवे ट्रैक जो  मैदानों पर दूर तक  फैला है, मन्दिर के  नीचे  की और  देखने पर एक आश्चर्यजनक   परिदृश्य उत्पन्न  करता  है।  मैंने डोंगरगढ़ शहर में  मनभावन हरियाली की  कमी  को  महसूस किया हु । नगरवासियो  को कम से कम बरगद , पीपल या आम आदि के पेड़ लगा  कर इस कमी को जरूर दूर करना चाहिए। ये तो अच्छी ही बात है की

 आसपास के पहाड़ों चट्टानों  व् झील के नज़ारे अप्रत्याशित कल्पना के लिए कारण प्रदान करते हैं। और बरसात के दिनों में  एक अलग ही नज़ारे पैदा करते है। साथ ही दूर तक फैले चट्टानें ,पत्थरो का ढेर  भी अनेको कल्पना का केंद्र बनते है।  ,,,,,, ये    रॉक संरचनाये  मुझे  तो  हमेशा अजीब सा  भ्रम प्रदान करते हैं। और जब भी वहा  जाता हुँ  तो ये  कल्पनाओं  की दूनिया  में  मुझे  ले जाते  है।इसी तरह  की  दृश्य  भानुप्रतापपुर  से कांकेर  तक की बस  मार्ग में भी देखने को  मिलता है।


  किंवदंती है कि,एक स्थानीय राजा Veersen, निःसंतान था और कहा कि हो जाता है। और अपने शाही पुजारियों के सुझावों से  देवताओं को पूजा कर विशेष  रूप से शिव पारवती जी की  करके मनौती मानी  । एक साल के भीतर, रानी वे Madansen  नाम एक पुत्र को जन्म दिया। राजा Veersen ने इसे  भगवान शिव और पार्वती की एक वरदान मान उनकी  सम्मान में  मंदिर बनवाया । और मां Bamleshwari देवी का यह मंदिर जाहिर वर्षों में महान आध्यात्मिक महत्व प्राप्त कर ली है।डोंगरगढ़ के बारे में अनेको कहानी लिखी गई है। जो की नेट में उपलब्ध है।अतः  इस प र मै  ज्यादा लिखना उचित नही समझता।  वैसे राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है।



डोंगरगढ़  की पहाड़ियों की प्राकृतिकता , कृत्रिम  निर्माण कर समाप्त किया जा रहा है.  साथ  ही पहाड़ी और आसपास  की जगह  पर कचरो का ढेर फैलता जा रहा है। जिसे की रोकने जान-जागरूकता  आवश्यक है। तथा चारो तरफ की पहाड़ी की आकार  ,व् खुबसूरती बिगाड़ने  में लगे है जिस पर शासन को अंकुश करना चाहिए ,नही तो वो दिन दूर नही रहेगा जबकि सिर्फ चारो और पक्के  भवन और गन्दगी  ही नज़र आये।
 यहा  पर अन्य  देखने योग्य  स्थान निम्न है -
विशाल बुद्ध प्रतिमा  डोंगरगढ़ में एक पहाड़ी पर बौद्ध धर्म के लोगों का तीर्थ प्रज्ञागिरी स्थापित है। यहां भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है। इसके साथ ही माँ रणचण्डी देवी का मंदिर है जिसे    टोनहिन

 बम्लाई भी कहा जाता है। शहर के इतिहास को जानने  वालो के अनुसार  के अनुसार इस मदिर में जादू -टोने की जांच की जाती है। वर्तमान में बाहरी  लोगो को ज्यादा  इस मंदिर के दर्शन को जाते हुए मैंने नही देखा।  ड़ोगरगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह है।

मंदिर  खुलने  की स्थिति
कार्यदिवस पर - 04:00-12:00
13:00-22:30
शनिवार और रविवार को - 5:00-10:00
कैसे पहुँचें
डोंगरगढ़ जिला मुख्यालय राजनांदगांव से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और अच्छी तरह से राजनांदगांव से बसों के साथ जुड़ा हुआ है। डोंगरगढ़ भी अच्छी तरह से रेल  गाड़ियों के साथ जुड़ा हुआ है। यह नागपुर से 170 किलोमीटर और रायपुर से 100 किलोमीटर की दूरी पर मुंबई-हावड़ा मुख्य लाइन पर है। निकटतम हवाई अड्डा माना  (रायपुर) में है।

मौसम यात्रा करने के लि

डोंगरगढ़ साल भर  बाहर  से भी  आकर  दौरा किया जा सकता है।

(चित्र  साभार  गूगल  से व् अन्य मित्रो से )




Thursday, 27 November 2014

 अमरकण्टक मेरी यादो में से 
   देवेंद्र कुमार शर्मा सुंदरनगर रायपुर छ। ग 

  अमरकण्टक मध्य प्रदेस  के अनूपपुर जिले  में आता हैं।  यह जिला   डिण्डोरी म.प, और  छत्तीसगढ  राज्य  के बिलासपुर जिले  के पेण्ड्रा रोड नामक रेलवे स्टेशन से भी  उतर  कर जाया जा सकता है। 
पेण्ड्रा से  बस  के रास्ते  में केवची  नमक गाव  से होते हुए भी जंगल पहाड़ के बीच घाट  वाले  रस्ते से चढ़ते हुये भी पंहुचा जा  सकता है।

वर्ष 85  में पहली बार मै  मुंगेली से तखतपुर और वहा से करगीखुर्द की और मूड़ कर अचानकमार जंगल में  से होते  हुये छपरवा विश्रामगृह तक पहुंचे थे। फिर वहा  में कुछ देर आराम कर आगे बढ़े थे। इसके बाद २,3 बार  और वहा  जाने का अवसर तो प्राप्त हुआ है।  किन्तु अब  वहा  कि प्राकृतिक छबि को और पेड़ -पौधे  जीव जन्तुओ  का नाश होते  देख दुःख होता है।

 छत्तीसगढ़  निर्माण  के बाद अब अचानकमार एरिया को  रिजर्व फ़ारेस्ट में परिवर्तित कर दिया गया है। अमरकंटक में  मंदिरो की भरमार और पक्के  निर्माण  कार्यो ने नर्मदा जी के उद्गम  स्थल कुण्ड  को और माई  की बगीया  स्थल की गुले बगावली , बूटी ,केवड़े के  पौधो  को काफी नुकसान  पहुचाया है। अमरकंटक में नर्मदा जी के मंदिर ,सोनमुड़ा  सोन , जोहुला नदी के उद्गम स्थल कपिलधारा  जलप्रपात ,दूधधारा जलप्रपात ,कबीर चबूतरा ,व् विभिन्न  आश्रम ही पहले देखने योग्य जगह थे। 
वर्तमान में अनेको मंदिर ,और आधुनिक आश्रम ,होटल आदि निर्मित है।

  नर्मदा जी  विश्व की सर्वाधिक प्राचीन नदियों में से एक और हमारे देश की सबसे प्राचीन प्रमुख नदी है ।  आज जहाँ  नर्मदा घाटी है कभी यहाँ तक अरब सागर का विस्तार था और यही वो स्थान हैं जहाँ करोड़ों वर्ष पूर्व अफ्रीका महाद्वीप से टूटा हुआ  हिस्सा भारत से आकर जुड़  गया।   कपिलधारा जल प्रपात   -

 नर्मदा अपने छोटे से उद्गम कुण्ड से  यात्रा आरम्भ करती है और जो धारा कपिलधारा तक जाती है उसका विस्तार बहुत ही कम है परन्तु सौंदर्य अद्भुत है ।

 नर्मदा के उद्गम स्थान से लगभग 6 किलोमीटर दूर ये जलप्रपात स्थित है । कहा जाता है कि कभी यहीं अमरकंटक नगरी थी । यहां नर्मदा 100 फुट गहरे खड्ड में गिरती है । दुर्गम चट्टानों से होकर एक मार्ग भी प्रपात के निचले हिस्से तक जाता है । नर्मदा अपने छोटे से उद्गम कुण्ड से  यात्रा आरम्भ करती है और जो धारा कपिलधारा तक जाती है उसका विस्तार बहुत ही कम है परन्तु सौंदर्य अद्भुत है । पहाड़ के नीचे उतरकर हि  इसके संपूर्ण दर्शन किये जा सकते हैं । नीचे पानी के गिरने के स्थान पर एक खोह है जहां जल प्रपात के पीछे  तक भी जाया जा सकता है ।जल प्रपात की ध्वनि पूरी घाटी में गुंजायमान होती है । कुछ दूर चलकर ही दुग्धधारा नामक स्थान है। यहा पर गिरने वाली धारा सफ़ेद  दूध जैसी दिखती है। यहा पर स्नान से शरीर  की अच्छी मालिश भी हो जाती हैं। यहां पर नर्मदा की पतली जलधारा दुर्गम पहाड़ियों और वनों में खो सी जाती है ।  व यहां का प्राकृतिक सौंदर्य मन को लुभाता है ।मुझे उसी समय की याद है जब हम लोग कपिलधारा स्थल से ऊपर से नीचे की और जाने लगे तभी कुछ लोगो की आवाज़ कानो  में सुनाई पड़ी , रुको ,आगे मत जाओ ,हमने पूछा क्या हुआ। तभी हमने देखा कि कई लोग आँखों  ,होठो ,चेहरा सूजे हुए  लोग हमारी ओर दर्द से कराहते  बढ़ते चले आ रहे हैं। हम लोग समझ गये कि उनपर मधुमक्खीयो  का हमला  हुआ है। वे लोग बसो में बैठकर बिलासपुर रेलवे कॉलोनी से पिकनिक मनाने आये हुये थे ,कपिलधारा जलप्रपात के ऊपर बड़े -बड़े मधुमक्खियों के  डेरा था। किसी ने शरारत से उनपर पत्थर फेक दिया था ,जिससे की वे बिफर गए थे। और इनके कोपभाजन का सबसे अधिक शिकार एक सिगरेट  पीने  वाला व्यक्ति शुरू में बना। वह व्यक्ति इतना अधिक घायल था की उसे जैसे तैसे सहारे से ऊपर सुरक्षित जगह में ले जाया गया था। हम लोग बच्चो सहित रुक गये। और जब वीरानी सी छा गई तो नीचे सावधानी पूर्वक उतर कर दूधधारा की ओर जंगल के रास्ते से बढे। उन पर्यटकों में से अधिकांश बंगाली परिवार से थे में से जो  जो कि पहले उपर चढ़ गये थे ,वे हि  सुरक्षित थे। नही तो सभी को मधु मक्खियों ने  अच्छा प्रसाद दिया था।
 दूधधारा जल प्रपात 
दूधधारा- अमरकंटक में दूधधारा नाम का यह झरना काफी लो‍कप्रिय है। ऊंचाई से गिरते इसे झरने का जल दूध के समान प्रतीत होता है  इसीलिए इसे दूधधारा  के नाम  से जाना  जाता है।,कपिलधारा जलप्रपात से नदी के किनारे किनारे के रास्ते होते हुये पत्थरो के ऊपर कूदफाँद  करते हुये ह्म लोग दूधधारा जलप्रपात तक  पहुंच कर  उस रमणीय  स्थल में  स्नान ध्यान में लग गये। और स्नान ख़त्म कर बॉस  के बने मचान नुमा सीढ़ी से ऊपर चढ़े तो  अचानक हमारी  नज़र एक छोटी  सी गुफा  और उसके ऊपर  लिखे दुर्वासा मुनि जी  के आश्रम वाली  बोर्ड पर पड़ी। और धर्मग्रंथो में उनके सम्बन्ध  में लिखे किस्से कहानिओं  को याद कर आतंकित  होकर उनकी मूर्ति से  छमा याचना  कर आगे बढे। यहाँ पर पाये जाने वाले  कीट , फंगस ,फ़र्न और अन्य  जड़ी बूटीआ  अन्य जगह की अपेक्छा  बहुत अच्छी  तरह से विकसित  दिखी। 
सिर  कटी हुई गजसवार 
 नर्मदा मंदिर समूह और उद्गम के मध्य पाषाण निर्मित सिर  कटी हुई गजसवार  की मूर्ती ,अश्व सवार ,सती प्रथा सूचक अनेको मुर्तिया स्थापित है। हाथी की 4 पैर वाली प्रतिमा के साथ आसपास के पुजारी -पण्डो  ने लोगो को भ्रमित कर दान दक्षिणा ऐंठने का अच्छा माध्यम खोज लिया है।
जब हम लोग वह पहुंचे तो क्या देखते है की बिलासपुर से आये उन  बंगाली परिवार में से एक के पुत्री और पत्नी हाथी  के पैरो के बीच से निकल कर पंडित को पैसे देकर धर्मात्मा घोषित हो चुके है। और अब वे तथा पंडित अपने मोटे से शरीर के पतिदेव को हाथी प्रतिमा  के पैरो के बीच से निकल कर धर्मात्मा  और ,किस्मतवाला कहलाने उकसा रहे थे।पंडितअलग उकसा रहा था , ताकि उनकी दान दक्षिणा इन  पुण्यात्माओं  से प्राप्त हो सके। गज  प्रतिमा के साथ किंवदन्ति जुड़ी हुई है कि इसके पैरो में मध्य से सिर्फ़ धर्मात्मा ही निकल सकता है चाहे वह कितना ही मोटा हो। अगर कोई पापी रहे तो पतला भी इसमें फ़ंस जाता है। बस क्या था वो मोटा आदमी पैरो के नीचे घुस तो गया किंतु बाहर नही निकल पा रहा था। ब्लड प्रेशर का शिकार भी था। परेशान होकर उसने हाथपैर डाल  रखें थे। पत्नि और पुत्री रो रही थी।  उकसा रहे लोग गायब हो चुके थे। बिचारे तमासबीनो  क मुफ्त  मनोरन्जन करते हलाकान थे। फिर लोगो की सलाह पर साबुन घोळ कर उड़ेले गये ,तभी वहा के कुछ पुराने व्यक्ति आ गये ,जिन्होंने उन्हें हिम्मत बंधा कर गाइड किया ,और वो ले- देकर जैसे तैसे बाहर  निकल ही आये। किन्तु इस दौरान उनके  हाथ  पैर पाकर करखिचने  पत्नी और पुत्री के द्वारा की कोशिस में पीठ छिल  भी चूका था।  वास्तविकता    में वहाँ  से  निकलने की टेकनिक है। वह व्यक्ती मोटा  होने से उसका पेट  हाथी  के पैरोँ के बीच फस गया था।  कुछ लोग  भय से ही हाथी  के प्रतिमा की  पैरों से निकलने का प्रयास हि  नहीं करते।    यद्यपि   मै दुबला हु ,किन्तु पता क्यों इस तरह की बात में विश्वास  नही  है ,और ऊपर वाली घटना भी एक कारण  हो सकता है।
सोन मुडा  – यह सोन नदी का उद्गम माना जाता है । अममरकंटक पर्वत से सोन की पतली धारा एक दलदली प्रदेश से निकलकर वनखंडी में अदृश्य हो जाती है । सोन नदी का वर्णन आर्यों औऱ मेगस्थनीज ने “ हिरण्याह “ नाम से किया है । इसकी जलधारा में सोने के कण मिलने के कारण ही इसका नाम सोन पड़ने की भी किवदंती है । सोन का उल्लेख ब्रम्हपुराण, बाल्मिकी रामायण औऱ भागवत में भी मिलता है । एक जनश्रुति के अनुसार सोन का विवाह नर्मदा से निश्चित हुआ था किंतु नर्मदा को किसी अन्य स्त्री के साथ सोन के प्रेम संबंध का पता चल गया और उसने विवाह करने से इंकार कर दिया औऱ फिर वह विपरीत दिशा में प्रवाहमयी हो गईहै। 
 मां की बगिया- मां की बगिया माता नर्मदा को समर्पित है। कहा जाता है कि इस हरी-भरी बगिया से स्‍थान से शिव की पुत्री नर्मदा पुष्‍पों को चुनती थी। यहां प्राकृतिक रूप से आम,केले और अन्‍य बहुत से फलों के पेड़ उगे हुए हैं। साथ ही गुलबाकावली और गुलाब के सुंदर पौधे यहां की सुंदरता में बढोतरी करती हैं। यह बगिया नर्मदाकुंड से एक किमी. की दूरी पर है।
  (चित्र गूगल ,व् अन्य    ब्लॉगर  साथियो  से साभार लिया गया है )              



Saturday, 8 November 2014

जगत जननी माँ ज्वालादेवी ग्राम सोनपुर पाटन

ब्लॉ,देवेन्द्र कुमार शर्मा 
सुंदरनगर रायपुर छ, ग ,
खारून नदी के तट पर सोनपुर ग्राम बसा हुआ है। यहाँ के 2 शिवलिंग एवं जगत जननी माँ ज्वालादेवी की इस अंचल में काफी ख्याति है
छत्तीसगढ़ मातृ प्रधान प्रदेश है माता के नाम से पुत्र की पहचान भी इस प्रदेश की विशेषता है।,यहा गाँव -कस्बो से लेकर बड़े शहरो तक देवी माँ की विभिन्न नामो में मंदिर और उनमे स्थापित मुर्तिया मिलेगी।और छत्तीसगढ़ में अनेक शक्तिपीठ बने। यहाँ देवियाँ ग्रामदेवी और कुलदेवी के रूप में पूजित हुई। मुख्यतः माँ महामाया ,कंकलिन ,शीतला देवी ,स्थानीय नामो में अलग अलग नामो जैसे माँ बम्लेश्वरी ,चंडी ,बिलाई माता ,दंतेश्वरी ,अंगारमोती ,सती,सात बहनिया,धुमा देवी और जंगल पहाड़ की घाटीओ बंजर जगह में बंजारी माता आदि आदि के नामो से लोगो के जीवन में जगह बनायीं हुई है। गौरी गणेश की पूजा विभिन्न जातियों में दोस्ती को बदना बद कर रिश्ते दारी में तब्दील करना जश गीत ,रामायण को अलग तरह की शैली में पड़ने की परंपरा ,इस छेत्र की विशेषता है। दुर्ग जिले के पाटन ब्लॉक के रायपुर सीमा से लगा प्राचीन ग्राम तरीघाट से जहा की संस्कृती सिरपुर से भी प्राचीन माना जाता है ,से ही जुडी हुई ग्राम है

सोनपुर। पाटन से रायपुर मार्ग पर 4 किमी दूर खारून नदी के तट पर सोनपुर ग्राम बसा हुआ है। यहाँ के 2 शिवलिंग एवं ज्वालादेवी की इस अंचल में काफी ख्याति है।रायपुर से जगदलपुर राजमार्ग पर लगभग 101 किमी दूर अथवा धमतरी से 24 किमी की दूरी पर मरकाटोला ग्राम के दाहिनी औऱ फोरेस्ट बैरियर से ढाई किमी दूर ‘कंकालिन शक्ति-पीठ’ स्थित है। यह शक्ति-पीठ बियावान जंगल में एक पथरीली चट्टान पर है। शक्ति-पीठ की बाँयीं ओर उथला जल स्थान है। कंकालिन शक्ति-पीठ से एक नाला निकलता है, जो कंकालिन नाला के नाम से जाना जाता था।


 खारून नदी

लगभग 100 कि.मी. आगे नाले में एक पाताल फोड़ जल-स्रोत है, जहाँ बारह महीनों पानी प्रवाहित होता रहता है और यहाँ पानी का एक कुंड बन गया अपने उद्गम स्थल से 13 किमी. आगे चलकर कंकालिन नाला कुलिया ग्राम में पहुँचकर देवरानी-जेठानी नाला कहलाता है। कहा जाता है कि किसी देवरानी-जेठानी के रूप में दो स्त्रियाँ इस नाले में स्नान करते हुए डूब गई थीं और तभी से इस नाले को ‘देवरानी-जेठानी’ नाला कहा जाने लगा। कुलिया ग्राम से 25 किमी दूर किकिरमेटा ग्राम से 4 किमी पहले इस नाले में तर्री नाला का संगम हुआ है और तर्री नाला का उद्गम संगम से 28 किमी. दूर ग्राम बरपारा के जंगल से हुआ है। इन्हीं दो नालों की धारायें आगे चलकर 5 या 6 किमी दूर किकिरमेटा पहुँचती हैं और यहाँ नाले का नाम देवरानी-जेठानी नाला विलोपित होकर खारून नदी के रूप में परिवर्तित हो गया है।

आगे आते है तो नदी के दांए तट पर परसुलिडीह गाँव एवं बांए तट पर तरीघाट गाँव बसा है।



 परसुलिडीह से ही नदी के उस पार बड़े बड़े टीले दिखाई देने लगते हैं। इन टीलों पर अकोल के वृक्षों की भरमार है। इन टीलों की सतह पर काले और लाल मृदा भांड के अवशेष पाए जाते हैं।
जिससे सिद्ध होता है कि इस स्थान प्राचीन बसाहट रही होगी। यहाँ बसाहट के कई स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रागैतिहासिक काल से लेकर मौर्य काल, शुंग काल, कुषाण काल एवं गुप्त काल तक के अवशेष प्राप्त हो रहे हैं। इससे यह तो तय है कि छत्तीसगढ़ में मल्हार के बाद पहली बार कहीं इतनी पुरानी सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हो रहे हैं। ग्रामीणों ने यहाँ महामाया का मंदिर बना रखा है
नदी के किनारे यहाँ पर पहले कभी डाक यार्ड रहा होगा। तरीघाट में इन 4 टीलों के चारों तरफ़ पत्थर के परकोटे बने हुए हैं। जब यहाँ बसाहट थी तो ये परकोटे सुरक्षा घेरे का काम करते थे। उत्खनन के दौरान ज्ञात हुआ कि सभी घर पंक्तिबद्ध रुप से बसे थे और उनके बीच चौड़ी सड़क के साथ गलियाँ भी थी। कई घरों से रसोई प्राप्त हुई है, जहाँ चुल्हे की राख के साथ के मिट्टी के दैनिक उपयोग के बर्तन प्राप्त हुए हैं।
छत्तीसगढ़ की खारून नदी का भी अपना एक अलग सांस्कृतिक इतिहास है। वैसे देखा जाये तो ग्राम सोनपुर और लामकेनि गाव के बीच यहाँ खारून नदी का पाट काफी चौड़ा लगभग एक किमी चौड़ा है सोनपुर का एक शिवलिंग 5 फीट का है जो खारून नदी की मध्य धार में रेत के नीचे दबा हुआ मिला था। और दूसरा समीपस्थ बावड़ी में प्राप्त शिवलिंग साढ़े तीन फीट


ऊँचा है और यह ज्वालादेवी के मंदिर के मध्य एक बावड़ी से प्राप्त हुआ था दोनों शिवलिंगों के ऊपर का तिहाई भाग गोलाकार है और बाद का भाग चौकोर है। नवरात्रि के समय ज्वालामुखी के मंदिर के पास कुंड में देवी के जँवारों की पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात जँवारों को खारून नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। जहा की मूल संस्कृती हिमाचल प्रदेश ,उत्तरप्रदेश ,व् आसाम से आये लोगो से ही स्थापित है। क्युकी शायद ये पहला गाव है ,जहा की माँ ज्वाला देवी ,माँ गौरी कमाक्छ्या देवी के नाम से मुर्तिया मंदिर में स्थापित है। तथा यहाँ पर रहने वालो में इनके प्रति अत्यंत श्रद्धा है।यहा की माता जी की मूल मूर्ती मिट्टी से बनी हुई है ,और वो भी ग्राम सोनपुर   के  ही एक कुम्भकार परिवार के द्वारा ही निर्मित है।  बाबा गोरखनाथ ,व् मछंदरनाथ जी को भी मानने वाले जो की उड़ीसा ,आसाम से जुड़े हुए लोग भी रहते है ,मिट्टी के बर्तन इस गाव में बने मिट्टी के बर्तन की ख्याति भी दूर दूर तक है। इस पेशा से जुड़े लोग भी है। यह गाव भी पूर्व में स्थापित सभ्यता के अनुसार नदी के किनारे ही बसा हुआ है।हम लोग भी इसी नदी के आँचल में खेलते -कूदते हुए ही बड़े हुए है।इस गाव की और कई विशेषताए है पवित्र खारून नदी इस गाव की जीवनदायिनी है।खारून नदी दुर्ग व रायपुर जिलों की सीमा का निर्धारण करती है तथा अपने संगम स्थल पर यह बेमेतरा एवं बलौदा बाजार तहसीलों को भी एक दूसरे से विभाजित करती है।हिमाचल स्थित ज्वाला देवी मंदिर 51 शक्तिपीठों में सर्वोपरि माना जाता है. जब भगवान शिव माता सती को कंधे पर उठाकर इधर-उधर घूम रहे थे, तब माता का जिह्वा इसी स्थान पर गिर पड़ा था. कहते हैं मां शक्ति के इस मंदिर में 9 ज्वालाएं प्रज्वलित है, जो कि 9 देवियां महाकाली, महालक्ष्मी, सरस्वती, अन्नपूर्णा, चंडी, विन्धयवासिनी, हिंगलाज भवानी, अम्बिका और अंजना देवी की स्वरुप हैं. मां ज्वाला देवी के मंदिर में अनवरत रूप से प्राकृतिक ज्वाला प्रज्वलित होती रहती है. मान्यता है कि जो मनुष्य सत्यनिष्ठा के साथ इस रहस्यमयी शक्तिपीठ आता है, उसकी कामना अवश्य ही पूर्ण होती है. एक प्रचलित दन्त कथा के अनुसार सतयुग में महाकाली के परमभक्त राजा भूमिचंद को देवी ने स्वप्न दिया और अपने पवित्र स्थान के बारे में बताया, तब राजा भूमिचंद स्वयं उस स्थान पर गए जहां उन्हें माता ज्वाला देवी की ज्वाला का दर्शन हुआ. तब उन्होंने वहां पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और शाक-द्वीप से भोजक जाती के ब्राह्मणों को बुलाकर माता की पूजा के लिए नियुक्त किया. उन दोनों ब्राह्मण का नाम पंडित श्रीधर और पंडित कलापति था. कहते हैं उनके वंशज ही आज भी माता की पूजा करते हैं. नवरात्र के समय में यहां बहुत भीड़ रहती है परन्तु आस्थावान भक्त इस समय माता के दर्शन को अवश्य आते हैंहै शेष अगले भाग में ,,...जिसमे अनेको मनोरंजक व् नयी बाते आपको मिलेगी ?.  मेरे ब्लॉग jiwan ke aneko rang में 

छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृतिओ के साथ पड़ा जा सकता है शीघ्र ही माँ 

ज्वालादेवी ,खारून नदी के तट के प्रसिद्ध स्थल,छत्तीसगढ़ में टोनही प्रथा 
और भूत प्रेत पर कहानी पड़ना हो तो मेरे ब्लॉग में पढ़े. आप भी मैटर 

आपके नाम से प्रकाशित करने भेज सकते है ,मुझे। .....,,,,,,,,,,,,,,,,,,

जलती रहेगी गोरखनाथ के इंतजार में मां की ज्वाला 

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कालीधार पहाड़ी के बीच बसा है ज्वाला देवी का मंदिर। मां ज्वाला देवी तीर्थ स्थल को देवी के 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ माना जाता है। शक्तिपीठ वह स्थान कहलाते हैं जहां-जहां भगवान विष्णु के चक्र से कटकर माता सती के अंग गिरे थे। शास्त्रों के अनुसार ज्वाला देवी में सती की जिह्वा गिरी थी। मान्यता है कि सभी शक्तिपीठों में देवी हमेशा निवास करती हैं। शक्तिपीठ में माता की आराधना करने से माता जल्दी प्रसन्न होती है।

ज्वाला रूप में माता 

ज्वालादेवी मंदिर में सदियों से बिना तेल बाती के प्राकृतिक रूप से नौ ज्वालाएं जल रही हैं। नौ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला जो चांदी के जाला के बीच स्थित है उसे महाकाली कहते हैं। अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी देवी ज्वाला देवी मंदिर में निवास करती हैं।
 मां ज्वाला देवी शक्तिपीठ के
ज्वाला को बुझा न सका अकबर 
कथा है कि मुगल बादशाह अकबर ने ज्वाला देवी की शक्ति का अनादर किया और मां की तेजोमय ज्वाला को बुझाने का हर संभव प्रयास किया। लेकिन अकबर अपने प्रयास में असफल रहा। अकबर को जब ज्वाला देवी की शक्ति का आभास हुआ तो अपनी भूल की क्षमा मांगने के लिए अकबर ने ज्वाला देवी को सवामन सोने का छत्र चढ़ाया।

ज्वालादेवी की ज्योति 
ज्वाला माता से संबंधित गोरखनाथ की कथा इस क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। कथा है कि भक्त गोरखनाथ यहां माता की आरधाना किया करता था। एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माता आग जलाकर बैठ गयी और गोरखनाथ भिक्षा मांगने चले गये।

इसी बीच समय परिवर्तन हुआ और कलियुग आ गया। भिक्षा मांगने गये गोरखनाथ लौटकर नहीं आये। तब ये माता अग्नि जलाकर गोरखनाथ का इंतजार कर रही हैं। मान्यता है कि सतयुग आने पर बाबा गोरखनाथ लौटकर आएंगे, तब-तक यह ज्वाला यूं ही जलती रहेगी।

गोरख डिब्बी
ज्वाला दवी शक्तिपीठ में माता की ज्वाला के अलावा एक अन्य चमत्कार देखने को मिलता है। मंदिर के पास ही 'गोरख डिब्बी' है। यहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है।





 रिटायरमेंट के बाद आसान तरीके जीवन जीने के लिए