Thursday, 27 November 2014

 अमरकण्टक मेरी यादो में से 
   देवेंद्र कुमार शर्मा सुंदरनगर रायपुर छ। ग 

  अमरकण्टक मध्य प्रदेस  के अनूपपुर जिले  में आता हैं।  यह जिला   डिण्डोरी म.प, और  छत्तीसगढ  राज्य  के बिलासपुर जिले  के पेण्ड्रा रोड नामक रेलवे स्टेशन से भी  उतर  कर जाया जा सकता है। 
पेण्ड्रा से  बस  के रास्ते  में केवची  नमक गाव  से होते हुए भी जंगल पहाड़ के बीच घाट  वाले  रस्ते से चढ़ते हुये भी पंहुचा जा  सकता है।

वर्ष 85  में पहली बार मै  मुंगेली से तखतपुर और वहा से करगीखुर्द की और मूड़ कर अचानकमार जंगल में  से होते  हुये छपरवा विश्रामगृह तक पहुंचे थे। फिर वहा  में कुछ देर आराम कर आगे बढ़े थे। इसके बाद २,3 बार  और वहा  जाने का अवसर तो प्राप्त हुआ है।  किन्तु अब  वहा  कि प्राकृतिक छबि को और पेड़ -पौधे  जीव जन्तुओ  का नाश होते  देख दुःख होता है।

 छत्तीसगढ़  निर्माण  के बाद अब अचानकमार एरिया को  रिजर्व फ़ारेस्ट में परिवर्तित कर दिया गया है। अमरकंटक में  मंदिरो की भरमार और पक्के  निर्माण  कार्यो ने नर्मदा जी के उद्गम  स्थल कुण्ड  को और माई  की बगीया  स्थल की गुले बगावली , बूटी ,केवड़े के  पौधो  को काफी नुकसान  पहुचाया है। अमरकंटक में नर्मदा जी के मंदिर ,सोनमुड़ा  सोन , जोहुला नदी के उद्गम स्थल कपिलधारा  जलप्रपात ,दूधधारा जलप्रपात ,कबीर चबूतरा ,व् विभिन्न  आश्रम ही पहले देखने योग्य जगह थे। 
वर्तमान में अनेको मंदिर ,और आधुनिक आश्रम ,होटल आदि निर्मित है।

  नर्मदा जी  विश्व की सर्वाधिक प्राचीन नदियों में से एक और हमारे देश की सबसे प्राचीन प्रमुख नदी है ।  आज जहाँ  नर्मदा घाटी है कभी यहाँ तक अरब सागर का विस्तार था और यही वो स्थान हैं जहाँ करोड़ों वर्ष पूर्व अफ्रीका महाद्वीप से टूटा हुआ  हिस्सा भारत से आकर जुड़  गया।   कपिलधारा जल प्रपात   -

 नर्मदा अपने छोटे से उद्गम कुण्ड से  यात्रा आरम्भ करती है और जो धारा कपिलधारा तक जाती है उसका विस्तार बहुत ही कम है परन्तु सौंदर्य अद्भुत है ।

 नर्मदा के उद्गम स्थान से लगभग 6 किलोमीटर दूर ये जलप्रपात स्थित है । कहा जाता है कि कभी यहीं अमरकंटक नगरी थी । यहां नर्मदा 100 फुट गहरे खड्ड में गिरती है । दुर्गम चट्टानों से होकर एक मार्ग भी प्रपात के निचले हिस्से तक जाता है । नर्मदा अपने छोटे से उद्गम कुण्ड से  यात्रा आरम्भ करती है और जो धारा कपिलधारा तक जाती है उसका विस्तार बहुत ही कम है परन्तु सौंदर्य अद्भुत है । पहाड़ के नीचे उतरकर हि  इसके संपूर्ण दर्शन किये जा सकते हैं । नीचे पानी के गिरने के स्थान पर एक खोह है जहां जल प्रपात के पीछे  तक भी जाया जा सकता है ।जल प्रपात की ध्वनि पूरी घाटी में गुंजायमान होती है । कुछ दूर चलकर ही दुग्धधारा नामक स्थान है। यहा पर गिरने वाली धारा सफ़ेद  दूध जैसी दिखती है। यहा पर स्नान से शरीर  की अच्छी मालिश भी हो जाती हैं। यहां पर नर्मदा की पतली जलधारा दुर्गम पहाड़ियों और वनों में खो सी जाती है ।  व यहां का प्राकृतिक सौंदर्य मन को लुभाता है ।मुझे उसी समय की याद है जब हम लोग कपिलधारा स्थल से ऊपर से नीचे की और जाने लगे तभी कुछ लोगो की आवाज़ कानो  में सुनाई पड़ी , रुको ,आगे मत जाओ ,हमने पूछा क्या हुआ। तभी हमने देखा कि कई लोग आँखों  ,होठो ,चेहरा सूजे हुए  लोग हमारी ओर दर्द से कराहते  बढ़ते चले आ रहे हैं। हम लोग समझ गये कि उनपर मधुमक्खीयो  का हमला  हुआ है। वे लोग बसो में बैठकर बिलासपुर रेलवे कॉलोनी से पिकनिक मनाने आये हुये थे ,कपिलधारा जलप्रपात के ऊपर बड़े -बड़े मधुमक्खियों के  डेरा था। किसी ने शरारत से उनपर पत्थर फेक दिया था ,जिससे की वे बिफर गए थे। और इनके कोपभाजन का सबसे अधिक शिकार एक सिगरेट  पीने  वाला व्यक्ति शुरू में बना। वह व्यक्ति इतना अधिक घायल था की उसे जैसे तैसे सहारे से ऊपर सुरक्षित जगह में ले जाया गया था। हम लोग बच्चो सहित रुक गये। और जब वीरानी सी छा गई तो नीचे सावधानी पूर्वक उतर कर दूधधारा की ओर जंगल के रास्ते से बढे। उन पर्यटकों में से अधिकांश बंगाली परिवार से थे में से जो  जो कि पहले उपर चढ़ गये थे ,वे हि  सुरक्षित थे। नही तो सभी को मधु मक्खियों ने  अच्छा प्रसाद दिया था।
 दूधधारा जल प्रपात 
दूधधारा- अमरकंटक में दूधधारा नाम का यह झरना काफी लो‍कप्रिय है। ऊंचाई से गिरते इसे झरने का जल दूध के समान प्रतीत होता है  इसीलिए इसे दूधधारा  के नाम  से जाना  जाता है।,कपिलधारा जलप्रपात से नदी के किनारे किनारे के रास्ते होते हुये पत्थरो के ऊपर कूदफाँद  करते हुये ह्म लोग दूधधारा जलप्रपात तक  पहुंच कर  उस रमणीय  स्थल में  स्नान ध्यान में लग गये। और स्नान ख़त्म कर बॉस  के बने मचान नुमा सीढ़ी से ऊपर चढ़े तो  अचानक हमारी  नज़र एक छोटी  सी गुफा  और उसके ऊपर  लिखे दुर्वासा मुनि जी  के आश्रम वाली  बोर्ड पर पड़ी। और धर्मग्रंथो में उनके सम्बन्ध  में लिखे किस्से कहानिओं  को याद कर आतंकित  होकर उनकी मूर्ति से  छमा याचना  कर आगे बढे। यहाँ पर पाये जाने वाले  कीट , फंगस ,फ़र्न और अन्य  जड़ी बूटीआ  अन्य जगह की अपेक्छा  बहुत अच्छी  तरह से विकसित  दिखी। 
सिर  कटी हुई गजसवार 
 नर्मदा मंदिर समूह और उद्गम के मध्य पाषाण निर्मित सिर  कटी हुई गजसवार  की मूर्ती ,अश्व सवार ,सती प्रथा सूचक अनेको मुर्तिया स्थापित है। हाथी की 4 पैर वाली प्रतिमा के साथ आसपास के पुजारी -पण्डो  ने लोगो को भ्रमित कर दान दक्षिणा ऐंठने का अच्छा माध्यम खोज लिया है।
जब हम लोग वह पहुंचे तो क्या देखते है की बिलासपुर से आये उन  बंगाली परिवार में से एक के पुत्री और पत्नी हाथी  के पैरो के बीच से निकल कर पंडित को पैसे देकर धर्मात्मा घोषित हो चुके है। और अब वे तथा पंडित अपने मोटे से शरीर के पतिदेव को हाथी प्रतिमा  के पैरो के बीच से निकल कर धर्मात्मा  और ,किस्मतवाला कहलाने उकसा रहे थे।पंडितअलग उकसा रहा था , ताकि उनकी दान दक्षिणा इन  पुण्यात्माओं  से प्राप्त हो सके। गज  प्रतिमा के साथ किंवदन्ति जुड़ी हुई है कि इसके पैरो में मध्य से सिर्फ़ धर्मात्मा ही निकल सकता है चाहे वह कितना ही मोटा हो। अगर कोई पापी रहे तो पतला भी इसमें फ़ंस जाता है। बस क्या था वो मोटा आदमी पैरो के नीचे घुस तो गया किंतु बाहर नही निकल पा रहा था। ब्लड प्रेशर का शिकार भी था। परेशान होकर उसने हाथपैर डाल  रखें थे। पत्नि और पुत्री रो रही थी।  उकसा रहे लोग गायब हो चुके थे। बिचारे तमासबीनो  क मुफ्त  मनोरन्जन करते हलाकान थे। फिर लोगो की सलाह पर साबुन घोळ कर उड़ेले गये ,तभी वहा के कुछ पुराने व्यक्ति आ गये ,जिन्होंने उन्हें हिम्मत बंधा कर गाइड किया ,और वो ले- देकर जैसे तैसे बाहर  निकल ही आये। किन्तु इस दौरान उनके  हाथ  पैर पाकर करखिचने  पत्नी और पुत्री के द्वारा की कोशिस में पीठ छिल  भी चूका था।  वास्तविकता    में वहाँ  से  निकलने की टेकनिक है। वह व्यक्ती मोटा  होने से उसका पेट  हाथी  के पैरोँ के बीच फस गया था।  कुछ लोग  भय से ही हाथी  के प्रतिमा की  पैरों से निकलने का प्रयास हि  नहीं करते।    यद्यपि   मै दुबला हु ,किन्तु पता क्यों इस तरह की बात में विश्वास  नही  है ,और ऊपर वाली घटना भी एक कारण  हो सकता है।
सोन मुडा  – यह सोन नदी का उद्गम माना जाता है । अममरकंटक पर्वत से सोन की पतली धारा एक दलदली प्रदेश से निकलकर वनखंडी में अदृश्य हो जाती है । सोन नदी का वर्णन आर्यों औऱ मेगस्थनीज ने “ हिरण्याह “ नाम से किया है । इसकी जलधारा में सोने के कण मिलने के कारण ही इसका नाम सोन पड़ने की भी किवदंती है । सोन का उल्लेख ब्रम्हपुराण, बाल्मिकी रामायण औऱ भागवत में भी मिलता है । एक जनश्रुति के अनुसार सोन का विवाह नर्मदा से निश्चित हुआ था किंतु नर्मदा को किसी अन्य स्त्री के साथ सोन के प्रेम संबंध का पता चल गया और उसने विवाह करने से इंकार कर दिया औऱ फिर वह विपरीत दिशा में प्रवाहमयी हो गईहै। 
 मां की बगिया- मां की बगिया माता नर्मदा को समर्पित है। कहा जाता है कि इस हरी-भरी बगिया से स्‍थान से शिव की पुत्री नर्मदा पुष्‍पों को चुनती थी। यहां प्राकृतिक रूप से आम,केले और अन्‍य बहुत से फलों के पेड़ उगे हुए हैं। साथ ही गुलबाकावली और गुलाब के सुंदर पौधे यहां की सुंदरता में बढोतरी करती हैं। यह बगिया नर्मदाकुंड से एक किमी. की दूरी पर है।
  (चित्र गूगल ,व् अन्य    ब्लॉगर  साथियो  से साभार लिया गया है )              



Saturday, 8 November 2014

जगत जननी माँ ज्वालादेवी ग्राम सोनपुर पाटन

ब्लॉ,देवेन्द्र कुमार शर्मा 
सुंदरनगर रायपुर छ, ग ,
खारून नदी के तट पर सोनपुर ग्राम बसा हुआ है। यहाँ के 2 शिवलिंग एवं जगत जननी माँ ज्वालादेवी की इस अंचल में काफी ख्याति है
छत्तीसगढ़ मातृ प्रधान प्रदेश है माता के नाम से पुत्र की पहचान भी इस प्रदेश की विशेषता है।,यहा गाँव -कस्बो से लेकर बड़े शहरो तक देवी माँ की विभिन्न नामो में मंदिर और उनमे स्थापित मुर्तिया मिलेगी।और छत्तीसगढ़ में अनेक शक्तिपीठ बने। यहाँ देवियाँ ग्रामदेवी और कुलदेवी के रूप में पूजित हुई। मुख्यतः माँ महामाया ,कंकलिन ,शीतला देवी ,स्थानीय नामो में अलग अलग नामो जैसे माँ बम्लेश्वरी ,चंडी ,बिलाई माता ,दंतेश्वरी ,अंगारमोती ,सती,सात बहनिया,धुमा देवी और जंगल पहाड़ की घाटीओ बंजर जगह में बंजारी माता आदि आदि के नामो से लोगो के जीवन में जगह बनायीं हुई है। गौरी गणेश की पूजा विभिन्न जातियों में दोस्ती को बदना बद कर रिश्ते दारी में तब्दील करना जश गीत ,रामायण को अलग तरह की शैली में पड़ने की परंपरा ,इस छेत्र की विशेषता है। दुर्ग जिले के पाटन ब्लॉक के रायपुर सीमा से लगा प्राचीन ग्राम तरीघाट से जहा की संस्कृती सिरपुर से भी प्राचीन माना जाता है ,से ही जुडी हुई ग्राम है

सोनपुर। पाटन से रायपुर मार्ग पर 4 किमी दूर खारून नदी के तट पर सोनपुर ग्राम बसा हुआ है। यहाँ के 2 शिवलिंग एवं ज्वालादेवी की इस अंचल में काफी ख्याति है।रायपुर से जगदलपुर राजमार्ग पर लगभग 101 किमी दूर अथवा धमतरी से 24 किमी की दूरी पर मरकाटोला ग्राम के दाहिनी औऱ फोरेस्ट बैरियर से ढाई किमी दूर ‘कंकालिन शक्ति-पीठ’ स्थित है। यह शक्ति-पीठ बियावान जंगल में एक पथरीली चट्टान पर है। शक्ति-पीठ की बाँयीं ओर उथला जल स्थान है। कंकालिन शक्ति-पीठ से एक नाला निकलता है, जो कंकालिन नाला के नाम से जाना जाता था।


 खारून नदी

लगभग 100 कि.मी. आगे नाले में एक पाताल फोड़ जल-स्रोत है, जहाँ बारह महीनों पानी प्रवाहित होता रहता है और यहाँ पानी का एक कुंड बन गया अपने उद्गम स्थल से 13 किमी. आगे चलकर कंकालिन नाला कुलिया ग्राम में पहुँचकर देवरानी-जेठानी नाला कहलाता है। कहा जाता है कि किसी देवरानी-जेठानी के रूप में दो स्त्रियाँ इस नाले में स्नान करते हुए डूब गई थीं और तभी से इस नाले को ‘देवरानी-जेठानी’ नाला कहा जाने लगा। कुलिया ग्राम से 25 किमी दूर किकिरमेटा ग्राम से 4 किमी पहले इस नाले में तर्री नाला का संगम हुआ है और तर्री नाला का उद्गम संगम से 28 किमी. दूर ग्राम बरपारा के जंगल से हुआ है। इन्हीं दो नालों की धारायें आगे चलकर 5 या 6 किमी दूर किकिरमेटा पहुँचती हैं और यहाँ नाले का नाम देवरानी-जेठानी नाला विलोपित होकर खारून नदी के रूप में परिवर्तित हो गया है।

आगे आते है तो नदी के दांए तट पर परसुलिडीह गाँव एवं बांए तट पर तरीघाट गाँव बसा है।



 परसुलिडीह से ही नदी के उस पार बड़े बड़े टीले दिखाई देने लगते हैं। इन टीलों पर अकोल के वृक्षों की भरमार है। इन टीलों की सतह पर काले और लाल मृदा भांड के अवशेष पाए जाते हैं।
जिससे सिद्ध होता है कि इस स्थान प्राचीन बसाहट रही होगी। यहाँ बसाहट के कई स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रागैतिहासिक काल से लेकर मौर्य काल, शुंग काल, कुषाण काल एवं गुप्त काल तक के अवशेष प्राप्त हो रहे हैं। इससे यह तो तय है कि छत्तीसगढ़ में मल्हार के बाद पहली बार कहीं इतनी पुरानी सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हो रहे हैं। ग्रामीणों ने यहाँ महामाया का मंदिर बना रखा है
नदी के किनारे यहाँ पर पहले कभी डाक यार्ड रहा होगा। तरीघाट में इन 4 टीलों के चारों तरफ़ पत्थर के परकोटे बने हुए हैं। जब यहाँ बसाहट थी तो ये परकोटे सुरक्षा घेरे का काम करते थे। उत्खनन के दौरान ज्ञात हुआ कि सभी घर पंक्तिबद्ध रुप से बसे थे और उनके बीच चौड़ी सड़क के साथ गलियाँ भी थी। कई घरों से रसोई प्राप्त हुई है, जहाँ चुल्हे की राख के साथ के मिट्टी के दैनिक उपयोग के बर्तन प्राप्त हुए हैं।
छत्तीसगढ़ की खारून नदी का भी अपना एक अलग सांस्कृतिक इतिहास है। वैसे देखा जाये तो ग्राम सोनपुर और लामकेनि गाव के बीच यहाँ खारून नदी का पाट काफी चौड़ा लगभग एक किमी चौड़ा है सोनपुर का एक शिवलिंग 5 फीट का है जो खारून नदी की मध्य धार में रेत के नीचे दबा हुआ मिला था। और दूसरा समीपस्थ बावड़ी में प्राप्त शिवलिंग साढ़े तीन फीट


ऊँचा है और यह ज्वालादेवी के मंदिर के मध्य एक बावड़ी से प्राप्त हुआ था दोनों शिवलिंगों के ऊपर का तिहाई भाग गोलाकार है और बाद का भाग चौकोर है। नवरात्रि के समय ज्वालामुखी के मंदिर के पास कुंड में देवी के जँवारों की पूजा अर्चना की जाती है। तत्पश्चात जँवारों को खारून नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। जहा की मूल संस्कृती हिमाचल प्रदेश ,उत्तरप्रदेश ,व् आसाम से आये लोगो से ही स्थापित है। क्युकी शायद ये पहला गाव है ,जहा की माँ ज्वाला देवी ,माँ गौरी कमाक्छ्या देवी के नाम से मुर्तिया मंदिर में स्थापित है। तथा यहाँ पर रहने वालो में इनके प्रति अत्यंत श्रद्धा है।यहा की माता जी की मूल मूर्ती मिट्टी से बनी हुई है ,और वो भी ग्राम सोनपुर   के  ही एक कुम्भकार परिवार के द्वारा ही निर्मित है।  बाबा गोरखनाथ ,व् मछंदरनाथ जी को भी मानने वाले जो की उड़ीसा ,आसाम से जुड़े हुए लोग भी रहते है ,मिट्टी के बर्तन इस गाव में बने मिट्टी के बर्तन की ख्याति भी दूर दूर तक है। इस पेशा से जुड़े लोग भी है। यह गाव भी पूर्व में स्थापित सभ्यता के अनुसार नदी के किनारे ही बसा हुआ है।हम लोग भी इसी नदी के आँचल में खेलते -कूदते हुए ही बड़े हुए है।इस गाव की और कई विशेषताए है पवित्र खारून नदी इस गाव की जीवनदायिनी है।खारून नदी दुर्ग व रायपुर जिलों की सीमा का निर्धारण करती है तथा अपने संगम स्थल पर यह बेमेतरा एवं बलौदा बाजार तहसीलों को भी एक दूसरे से विभाजित करती है।हिमाचल स्थित ज्वाला देवी मंदिर 51 शक्तिपीठों में सर्वोपरि माना जाता है. जब भगवान शिव माता सती को कंधे पर उठाकर इधर-उधर घूम रहे थे, तब माता का जिह्वा इसी स्थान पर गिर पड़ा था. कहते हैं मां शक्ति के इस मंदिर में 9 ज्वालाएं प्रज्वलित है, जो कि 9 देवियां महाकाली, महालक्ष्मी, सरस्वती, अन्नपूर्णा, चंडी, विन्धयवासिनी, हिंगलाज भवानी, अम्बिका और अंजना देवी की स्वरुप हैं. मां ज्वाला देवी के मंदिर में अनवरत रूप से प्राकृतिक ज्वाला प्रज्वलित होती रहती है. मान्यता है कि जो मनुष्य सत्यनिष्ठा के साथ इस रहस्यमयी शक्तिपीठ आता है, उसकी कामना अवश्य ही पूर्ण होती है. एक प्रचलित दन्त कथा के अनुसार सतयुग में महाकाली के परमभक्त राजा भूमिचंद को देवी ने स्वप्न दिया और अपने पवित्र स्थान के बारे में बताया, तब राजा भूमिचंद स्वयं उस स्थान पर गए जहां उन्हें माता ज्वाला देवी की ज्वाला का दर्शन हुआ. तब उन्होंने वहां पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और शाक-द्वीप से भोजक जाती के ब्राह्मणों को बुलाकर माता की पूजा के लिए नियुक्त किया. उन दोनों ब्राह्मण का नाम पंडित श्रीधर और पंडित कलापति था. कहते हैं उनके वंशज ही आज भी माता की पूजा करते हैं. नवरात्र के समय में यहां बहुत भीड़ रहती है परन्तु आस्थावान भक्त इस समय माता के दर्शन को अवश्य आते हैंहै शेष अगले भाग में ,,...जिसमे अनेको मनोरंजक व् नयी बाते आपको मिलेगी ?.  मेरे ब्लॉग jiwan ke aneko rang में 

छत्तीसगढ़ की प्राचीन संस्कृतिओ के साथ पड़ा जा सकता है शीघ्र ही माँ 

ज्वालादेवी ,खारून नदी के तट के प्रसिद्ध स्थल,छत्तीसगढ़ में टोनही प्रथा 
और भूत प्रेत पर कहानी पड़ना हो तो मेरे ब्लॉग में पढ़े. आप भी मैटर 

आपके नाम से प्रकाशित करने भेज सकते है ,मुझे। .....,,,,,,,,,,,,,,,,,,

जलती रहेगी गोरखनाथ के इंतजार में मां की ज्वाला 

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में कालीधार पहाड़ी के बीच बसा है ज्वाला देवी का मंदिर। मां ज्वाला देवी तीर्थ स्थल को देवी के 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ माना जाता है। शक्तिपीठ वह स्थान कहलाते हैं जहां-जहां भगवान विष्णु के चक्र से कटकर माता सती के अंग गिरे थे। शास्त्रों के अनुसार ज्वाला देवी में सती की जिह्वा गिरी थी। मान्यता है कि सभी शक्तिपीठों में देवी हमेशा निवास करती हैं। शक्तिपीठ में माता की आराधना करने से माता जल्दी प्रसन्न होती है।

ज्वाला रूप में माता 

ज्वालादेवी मंदिर में सदियों से बिना तेल बाती के प्राकृतिक रूप से नौ ज्वालाएं जल रही हैं। नौ ज्वालाओं में प्रमुख ज्वाला जो चांदी के जाला के बीच स्थित है उसे महाकाली कहते हैं। अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, चण्डी, हिंगलाज, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका एवं अंजी देवी ज्वाला देवी मंदिर में निवास करती हैं।
 मां ज्वाला देवी शक्तिपीठ के
ज्वाला को बुझा न सका अकबर 
कथा है कि मुगल बादशाह अकबर ने ज्वाला देवी की शक्ति का अनादर किया और मां की तेजोमय ज्वाला को बुझाने का हर संभव प्रयास किया। लेकिन अकबर अपने प्रयास में असफल रहा। अकबर को जब ज्वाला देवी की शक्ति का आभास हुआ तो अपनी भूल की क्षमा मांगने के लिए अकबर ने ज्वाला देवी को सवामन सोने का छत्र चढ़ाया।

ज्वालादेवी की ज्योति 
ज्वाला माता से संबंधित गोरखनाथ की कथा इस क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। कथा है कि भक्त गोरखनाथ यहां माता की आरधाना किया करता था। एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माता आग जलाकर बैठ गयी और गोरखनाथ भिक्षा मांगने चले गये।

इसी बीच समय परिवर्तन हुआ और कलियुग आ गया। भिक्षा मांगने गये गोरखनाथ लौटकर नहीं आये। तब ये माता अग्नि जलाकर गोरखनाथ का इंतजार कर रही हैं। मान्यता है कि सतयुग आने पर बाबा गोरखनाथ लौटकर आएंगे, तब-तक यह ज्वाला यूं ही जलती रहेगी।

गोरख डिब्बी
ज्वाला दवी शक्तिपीठ में माता की ज्वाला के अलावा एक अन्य चमत्कार देखने को मिलता है। मंदिर के पास ही 'गोरख डिब्बी' है। यहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है।





 रिटायरमेंट के बाद आसान तरीके जीवन जीने के लिए