तुरतुरिया माता सीता का आश्रय स्थल
blogger - DKSHARMA 113,sundarnagar Raipur
सर्वप्रथम इस जगह पर मै अपने मित्र श्री नारद चौधरी जी के साथ उनके बुलेट से सिरपुर और बार नयापारा टूर के दौरान पंहुचा हु। उस समय मुझे याद है की महासमुंद से सिरपुर होते हुए कसडोल जाते समय पुल - पुलिए तेज वर्षा की वजह से बाढ़ आ गए थे।और हम दोनों को सिरपुर के पुराने विश्रामगृह में रात व्यतीत करना पड़ा था। और सुबेरे मौसम खुलने पर जैसे तैसे तुरतुरिआ देखते हुए कसडोल पहुंचे थे। वैसे वे 20 ,25 km दूर के ही रहने वाले है ,किन्तु इस स्थल में पहली बार मेरे साथ ही पहुंचे थे। बाद में मुझे इस स्थल में अनेको बार जाने का मौका मिला है। आज छत्तीसगढ़ का नाम पुरातात्विक सम्पदा से भरपूर सिरपुर आदि के कारण भारत में ही नही बल्कि विश्व मे भी अपनी एक अलग स्थान बनाता जा रहा है।वैसे तुरतुरिया रायपुर जिलासे 84 किमी एवं बलौदाबाजार जिला से 29 किमी दूर कसडोल तहसील से १२ किमी दूर प०ह्०न्० ४ बोरसी से ५किमी दूर और् सिरपुर से आने पर 23 किमी की दूरी पर घोर वन प्रदेश के अंतर्गत स्थित है। तब तो मार्ग जंगल वाले थे। अब पक्के मार्ग बन चुके है।
यह स्थान आसपास के छेत्र में सुरसुरी गंगा के नाम से भी प्रसिद्ध है । यह स्थल प्राकृतिक दृश्यो से भरा हुआ एक मनोरम स्थान है जो कि चारो और से जंगल पहाडियो से घिरा हुआ है। इसके समीप ही छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध अभ्यारण बारनवापारा भी स्थित है। यहा पर अनेको प्रकार के वन प्राणी ,फ़्लोरा व् फौना मिलते है।
तुरतुरिया बहरिया नामक गांव के समीप बलभद्री नाले पर स्थित है। एक बार जब हम लोग जीप से सुबेरे के समय यह पहुंचे थे ,तो नाले के आसपास गौर ,हिरण ,भालू आदि वन प्राणी देखने को मिले थे।मैंने एक विशालकाय मादा भालू को अपने दो बच्चो को पीठ में चढ़ा कर रास्ता पर करते भी देखा है। और वापिसी के दौरान एक नीलगाय ने सड़क के किनारे लगे पत्थर के दीवारो को छलांग लगा कर हमारे सामने ही दौड़ते देखा है। वो हमारे मोटर साइकिल से टकराते टकराते बचा था। किवदंती है कि त्रेतायुग मे महर्षि वाल्मीकि का आश्रम यही पर था और यही जगह लवकुश की भी जन्मस्थली थी।
इस स्थल का नाम तुरतुरिया होने का कारण शायद यह है कि बलभद्री नाले का जलप्रवाह चट्टानो के माध्यम से होकर निकलता है तो उसमे से उठने वाले बुलबुलो के कारण तुरतुर की ध्वनि निकलती है। जिसके कारण उसे तुरतुरिया नाम दिया गया है।
इसका इक जलप्रवाह एक लम्बी संकरी सुरंग से होता हुआ आगे जाकर एक जलकुंड मे गिरता है जिसका निर्माण प्राचीन ईटों से हुआ है। जिस स्थान पर कुंड मे यह जल गिरता है वहां पर एक गोमुख बना दिया गया है जिसके कारण जल उसके मुख से गिरता हुआ दृष्टिगोचर होता है। गोमुख के दोनो ओर दो प्राचीन पाषाण प्रतिमाए किसी वीर की स्मृती में स्थापित है जिसमे कि इक हाथ में तलवार लेकर सिंह को मारते हुए हुए खड़ा है । ,और दूसरी मूर्ति जानवर से लड़ाई करता हुआ उसकी गर्दन को मरोढ़ता हुआ है। यही पर विष्णु जी की भी दो प्राचीन मूर्तीया है। जिनमे से एक प्रतिमा खडी हुई स्थिति मे है तथा दूसरी प्रतिमा मे विष्णुजी को शेषनाग पर बैठे हुए दिखाया गया है। इस स्थान पर शिवलिंग भी खुदाई आदि में भी मिलते रहते है.. इसके अतिरिक्त प्राचीन पाषाण स्तंभ भी काफी मात्रा मे बिखरे दिखते है जिनमे कलात्मक खुदाई किया गया है। जिससे लगता है की यह स्थल पूर्व में विकसित रहा होगा। इसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन शिलालेख और कुछ प्राचीन बुध्द की प्रतिमाए भी यहां स्थापित है। यह स्थल बौध्द, वैष्णव तथा शैव धर्म से संबंधित संप्रदायो की कभी मिलीजुली संस्कृति रही होगी ऐसा प्रतीत होता है । समीप ही नारायणपुर , शिवरीनारायण वैष्णव व् शैव धर्म के धार्मिक स्थल व् सिरपुर बौध्द संस्कृति का भी केन्द्र रहा होगा। आध्यात्मिक व् पुरातात्विक ये स्थल इस बात को बल भी देती है। ऎसा माना जाता है कि यहां कभी महिला बौध्द विहार भी थे जिनमे बौध्द भिक्षुणियो का निवास था। समीप ही सिरपुर के होने के कारण यह माना जा सकता है की कि यह स्थल कभी बौध्द संस्कृति का भी केन्द्र रहा होगा। विशेषज्ञों ने ऎसा अनुमान लगाया गया है कि यहां से प्राप्त प्रतिमाओ का समय 8-9 वी शताब्दी है। आज भी यहां स्त्री पुजारिनो की नियुक्ति होती है जो कि एक प्राचीन काल से चली आ रही परंपरा है। यहां पूष माह मे तीन दिवसीय मेला लगता है जिसमे बडी संख्या मे आसपास के ग्रामवासी आते है। धार्मिक एवं पुरातात्विक स्थल होने के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण भी यह स्थल पर्यटको को अपनी ओर खींचता रहता है। पिकनिक मनाने भी लोग आते रहते है।
माता सीता का आश्रय स्थल
इस जगह के विषय में कहा जाता है कि लंका विजय से वापस आने के बाद श्रीराम द्वारा माता सीता को त्याग दिये जाने पर माता सीता को इसी स्थान पर वाल्मीकि मुनि जी ने अपने आश्रम में उन्हें आश्रय दिया था। और उनके पुत्र लव-कुश का भी जन्म यहीं पर हुआ माना जाता है । महर्षि वाल्मीकि को रामायण के रचियता भी माना जाता है. और इस लिए यहहिन्दुओं की अपार श्रृद्धा व भावनाओं का केन्द्र भी माना जा सकता है
पुरातात्विक महत्त्व
सन 1914 ई. में सर्वप्रथम तत्कालीन अंग्रेज़ कमिश्नर एच.एम. लारी ने इस स्थल के इतिहास को समझ यहाँ पर पुरातात्विक खुदाई करवाई, जिसमें अनेक मंदिर और सदियों पुरानी मूर्तियाँ प्राप्त हुयी थीं। यहाँ वर्तमान में पर कई मंदिर बनते जा रहे है। नज़दीक ही एक धर्मशाला भी बना हुआ है।
मातागढ़' नामक मंदिर
यहँ पर 'मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है, जहाँ पर महाकाली विराजमान हैं। नदी के दूसरी तरफ़ एक ऊँची पहाडी है। इस मंदिर पर जाने के लिए पगडण्डी के साथ सीड़ियाँ भी बनी हुयी हैं।मातागढ़' नामक एक अन्य प्रमुख मंदिर है जहाँ पर महाकाली जी स्थापित हैं। मातागढ़ में कभी बलि प्रथा होने के कारण बंदरों की बलि चढ़ाई जाती थी, लेकिन अब पिछले कई सालों यह बलि प्रथा बंद कर दी गई है। अब केवल सात्विक प्रसाद ही चढ़ाया जाता है। लोक मान्यता है कि मातागढ़ में एक स्थान पर वाल्मीकि आश्रम तथा आश्रम जाने के मार्ग में ही जानकी कुटिया है,जहा ही सीता जी रहती थी।
मैंने पाया की वर्तमान में यह पर मंदिर के आलावा अन्य सामान्य सुविधा खाने -पीने की वस्तुये मेला के समय को छोड़कर अनुप्लब्धत ही रहता है। अतः आप आते है तो पूरी व्यस्था के साथ ही आवे। किन्तु यहाँ पर आवै तो गंदगी न फैलावे यह ध्यान में रखे ।
(चित्र गूगल से साभार व् अन्य ब्लॉगर के सहयोग से )